परिभाषा
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'
जी चाहता है
परिभाषित करूँ
आज प्रेम को
मीरा का बालहठ
प्रेम अद्भुत
भक्त-भगवान का
प्रेम राधा-सा
आलौकिक, शाश्वत
आत्मा मिलन
या विरह-वेदना
यशोधरा की
कर्तव्यपरायण
रही सदा ही
विस्तृत गगन-सा
अथाह प्रेम
निश्चित, न सीमित
बन्धन मुक्त
व्याख्या है असम्भव
नतमस्तक
प्रेम पे बलिहारी
प्रेम जीता, मैं हारी!
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- लघुकथा
- कविता - हाइकु
- कविता-माहिया
- कविता-चोका
- कविता
- कविता - क्षणिका
-
- अनुभूतियाँ–001 : 'अनुजा’
- अनुभूतियाँ–002 : 'अनुजा’
- प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' – 002
- प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' – 003
- प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' – 004
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 001
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 005
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 006
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 007
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 008
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 009
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 010
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 011
- सिनेमा चर्चा
- कविता-ताँका
- हास्य-व्यंग्य कविता
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-