चाचा बहुत दिनों बाद मेरठ से आए थे, मम्मी ने उनकी पसन्द के कढ़ी-चावल, आलू-मेथी का साग, मिस्सी रोटी और हरी चटनी बनाई थी।
पापा और चाचा दोनों उँगलियाँ चाट-चाट कर खाना खा रहे थे और सीमा दौड़-दौड़ कर रसोई से गर्म-गर्म रोटियाँ लाकर परोस रही थी और मम्मी से, उनके बीच हो रही बातें भी दोहरा रही थी।
“मम्मी-मम्मी, चाचा को खाना बहुत अच्छा लग रहा है, वो और पापा दादी को याद करके कह रहे हैं कि अम्मा घर पर ही चक्की से आटा और चना पीसती थी, रोटी कितनी स्वादिष्ट बनती थी और सिलबट्टे पर चटनी तो इतनी महीन पीसती थी कि बस पूछो मत . . . ”
मम्मी रोटी की फूँक से जली उँगली पर आटे का लेप करते हुए रूखे स्वर में बोली, “बस यही तो याद रह जाता है हम औरतों के बारे में, घर गृहस्थी की चक्की में ख़ुद अम्मा कितनी पिसी, इससे किसी को मतलब नहीं . . .!”
1 टिप्पणियाँ
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मेरी रचना को पत्रिका में स्थान देने के लिए, आदरणीय सुमनजी का हार्दिक आभार! आशा है आप सब को पसन्द आएगी।
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