दादी की कहानियाँ
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'ऋतु घर की पहली बच्ची थी, सबकी लाडली। दादी-पोती की तो जान बसती थी एक दूसरे में। वे उसे गीतों और कहानियों के ज़रिए अच्छे संस्कार दे रहीं थी—किसी का मन मत दुखाओ, सबसे मीठी वाणी में बोलो, बड़ो को आदर और छोटो को प्यार दो, सब के साथ मिल बाँट कर खाओ इत्यादि।
ऋतु का स्वभाव ही ऐसा बन गया था कि अपने हिस्से की मिठाई और चॉकलेट आदि भी वो वहाँ बैठे चचेरे-मौसेरे भाई बहनों के साथ मिल बाँटकर ही खाती थी।
एक दिन वह कोने में बैठी सुबक रही थी। पिताजी ढूँढ़ते हुए आए तो पूछने पर वो बड़ी मासूमियत से बोली, “मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा।”
पिताजी उसे गोद मे भरते हुए बोले, “मुझे तेरा स्वभाव पता है, चल, तुझे और देता हूँ।”
ऋतु बड़ी हो गयी, उसका ब्याह हो गया।
वह, अब भी वैसी ही थी।
पर, अब उसे कोई ढूँढ़ता हुआ कोई नहीं आता था . . .
शायद, यहाँ दादी की कहानियाँ किसी को याद न थी . . .।
1 टिप्पणियाँ
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मेरी रचना को पत्रिका में स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय सुमन जी!
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