पिंजरा
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'एक बड़ा ही शक्तिशाली राजा था। उसे शिकार खेलने का बहुत शौक़ था। एक दिन जंगल में उसे किसी का बहुत ही सुरीला गाना सुनाई दिया। वह मन्त्र मुग्ध हो उसके पीछे-पीछे चल दिया। आख़िर में उसने पाया कि वह मिठास एक छोटी-सी मैना के स्वर की थी। वह उसे अपने साथ महल में ले आया।
सबसे पहले राजा ने अपनी प्यारी मैना के लिए एक बेशक़ीमती, रत्नजड़ित, सोने का पिंजरा बनवाया, फिर चाँदी की कटोरी में, सोने-चाँदी के वर्क चढ़ा दाना-चुग्गा उसे परोसा जाने लगा। देखते ही देखते राजा उसकी मीठी बोली का इतना दीवाना और आदि हो गया कि उसके बिन जीवन की अब वो कल्पना भी न कर सकता था।
दिन बीतने लगे . . .
मैना का पिंजरा खिड़की के पास था, वो दूसरे पंछियों को खुले आकाश में उड़ान भरते देखती तो उसके जी में एक हूक सी उठती, पर फिर राजा की ओर देखती, तो मन मसोस कर रह जाती! आने जाने वाले पंछी उसकी क़िस्मत पर रश्क किया करते थे . . . कितने ऊँचे भाग थे मैना के . . . आलीशान महल में रहती, . . .राजा की चहेती . . . और बिना श्रम किये कितना बढ़िया दाना-चुग्गा भी!
महीने बीतने लगे . . .
एक दिन राजा ने देखा कि मैना अब पहली-सी न थी, कभी आधा गीत गा कर भूल जाती, कभी अटकती और कभी तो एकदम रुक ही जाती! शाही वैध-हकीम बुलाये गए . . .पर सब बेकार . . .।
समय बीतता गया . . .
एक दिन राजा ने ग़ौर किया कि मैना खिड़की से बाहर, घंटों शून्य में ताकती, फिर ठंडी आह भर, पंख समेट, आँखें मूँद कर चुपचाप सिमट कर बैठ जाती, मानो उसकी प्राणशक्ति क्षीण हो रही हो . . .
राजा को उसका मर्ज़ समझ में आ गया, उसने अपना मन पक्का किया, पिंजरे का दरवाज़ा और खिड़की खोलकर बोला, "जा उड़ जा अपने देस, मेरी प्यारी मैना, आज से तू आज़ाद है . . ."
"पर . . .महाराज आप . . ."
"जाने-अनजाने में अब तक मैं केवल अपने बारे में ही सोचता रहा . . . आज तुम भी केवल अपने बारे में ही सोचो मैना रानी . . . यही हमारी नियति है . . ."
मैना के मन से बोझ उठ गया, उसका डूबा-सा मन मानो फिर से उबरने लगा। जिस दिन का वो स्वप्न देखा करती थी, यही तो था! उसने उड़ान भरने के लिए अपने पंख फैलाने चाहे . . .पर यह क्या? . . . बरसों से, इस्ते'माल न करने के कारण, वे खुल ही न पाएँ! . . .उसके पंख निर्बल हो चुके थे . . .!
वह शोक और विस्मय में डूब, दूर, आसमान के पार, भीगी पलको से ताकने लगी . . .
अब . . .?
. . .बहुत देर हो गयी थी शायद!
मैना की कहानी सुनकर मीना सुबक सुबक कर रोने लगी . . .बरसों बाद . . .जी भरकर!
उसके मन मे रह रह कर यही ख़्याल आ रहा था, कि आख़िर कहानीकार को उसकी आपबीती का, पता कैसे चला . . .
कहीं ऐसा तो नहीं, कि उसी के जैसी, कई और मीना भी थीं . . .!
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