वो औरत
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'ससुराल और मायका एक ही शहर में होने के कुछ फ़ायदे थे, तो कुछ नुक़सान भी! गीता का जब जी चाहता माँ-पापा से घण्टे-दो घण्टे के लिए मिलने आ जाती . . . पर हाँ! दूर शहर में बसी सखियों की तरह हफ़्ते–दो हफ़्ते रहना न हो पाता था। सभी का यही मत था कि बेकार ही अविनाश को बेसहूलियत होगी।
जैसे ही पता चला कि वो हफ़्ते भर को, ऑफ़िस के काम से मुंबई जा रहे हैं, उसने भी झट, घर जाने का इरादा कर लिया।
ऑटो से उतरी तो पड़ोस वाली शर्मा आँटी बाहर आँगन में कपड़े सुखा रहीं थीं। बड़ी ही संवेदनशील और सधी हुई महिला थीं . . . माँ की, हमउम्र भी . . . और उनकी, सहेली भी!
गीता ने नमस्ते करने और राज़ी-ख़ुशी जानने की मंशा से उस तरफ़ पैर बढ़ाये ही थे कि उसे पीठ किये, 'वो' औरत भी दिख गई।
उस औरत से मिलने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी उसकी, सो, 'नमस्ते आँटी, आप कैसी हो, रहने के लिए आई हूँ, आपसे आराम से, फ़ुर्सत में मिलती हूँ,' कहकर, वो झट अपने गेट में दाख़िल हो गई।
माँ-पापा तो कब से इंतज़ार कर ही रहे थे, कसकर उनसे गले लगी और फिर कढ़ी-चावल और आलू-मेथी के चटखारों के बीच, यहाँ-वहाँ की सारी गप-शप कर डाली। जैसे ही पापा अपने कमरे में सोने के लिए गए, गीता, माँ की गोद में सर रखकर, वहीं, सोफ़े पर ही पसर गई, "माँ . . . ये शर्मा आँटी मुझे ज़रा भी समझ नहीं आती . . . कैसे बर्दाश्त करती हैं उस औरत को . . . क्या ज़रूरत है उन्हें उससे हँसने बोलने की . . . मैं तो मर जाऊँ तो भी ऐसा न करूँ . . . आख़िर मेरा भी तो कोई मान सम्मान है . . . "
माँ उसके बालों को सहलाना रोक कर, गहरी साँस लेते हुए बोली, "हम औरतों के जीवन के कई फ़ैसले ऐसे होते हैं, जो तर्क-वितर्क के परे होते हैं . . . क्योंकि वो सिर्फ़ हमारे नहीं होते, उनके साथ, कड़ी-दर-कड़ी, कई जीवन जुड़े हुए होते हैं . . .
"मैंने भी कई बरस पहले उनसे यही सवाल किया था, और उनका सीधा सा जवाब था, ’दो लोगों के बीच कोई तीसरा तभी आता है, जब उनके बीच फ़ासला हो . . . अहम का तो काम ही होता है रिश्ते तोड़ना . . . और मुझे लगा, शर्मा साहब और मेरे रिश्ते में, अभी भी, बचाने लायक़ बहुत कुछ है . . . "
गीता सोच में पड़ गई . . .
कहीं उसका भी, 'अहम' ही तो नहीं था . . . जो अविनाश की लाख मिन्नतों के बाद भी, उसे दूसरा मौका देने से इंकार कर रहा था . . . ?
वो बेसब्री से अपने घर वापस जाने का . . . और अविनाश के घर लौटने का इंतज़ार करने लगी . . . !!
2 टिप्पणियाँ
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मेरी रचनाओं को पत्रिका में स्थान देने के लिए आदरणीय सुमन घई जी का हार्दिक आभार! सरिता जी आपको मेरी लघुकथा पसन्द आयी, आपकी प्रोत्साहन भरी सराहना के लिए अनेकों धन्यवाद!!
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बहुत बढ़िया कहानी! स्त्री- पुरुष संबंधों में किसी तीसरे की मौजूदगी पर
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