जी बुआजी

01-02-2021

जी बुआजी

प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' (अंक: 174, फरवरी प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

बुआजी, यूँ तो, सगी नहीं थी . . . पर दबदबा सगों से भी बढ़कर था! गठिया का वेग अधिक होने की वजह से मुकेश के ब्याह में नहीं आ सकीं थी . . . पर अब ठीक थीं . . . सो गाँव से, फुल्लन के साथ दिल्ली आ रहीं थी।

"अरी सरला, सुना है लल्ला गोरी मेम ब्याह कर लाया है . . ."

"जी बुआजी . . ."

"और भेजो विलायत पढ़ने. . .अपने देस में कोई कमी है क्या . . ."

"जी बुआजी . . ."

"सुना है, उसी दफ्तर में काम करती थी . . . दो साल बड़ी भी है  . . . और दो इंच लम्बी भी . . ."

"जी बुआजी…"

"अरी, ’जी बुआजी, जी बुआजी’ ही करती रहेगी, कि कुछ बोलेगी भी . . . न बिरादरी के पता, न जात का,  . . .न हमारा सा खान-पान, न पहनना-ओढ़ना . . .न रीत-रिवाज, न पालन-पोषण . . . ये सब न . . . तेरी ही ढील का नतीजा है . . ."

"पर . . .बुआजी . . .लड़की अच्छी है . . ."

"अरी, तू तो सदा की भोली है . . . तुझे तो सभी अच्छे लगे हैं . . ."

तभी, साड़ी में, एक गुड़िया-सी शर्मीली लड़की, सिर पर पल्ला लिए, बुआजी की ओर धीरे-धीरे बढ़ी . . . और पास आकर अंग्रेज़ी लहज़े में बोली – "न-मास्ते,  बू-आ-जी" . . . और जैसे ही पैर छूने को झुकी, बुआजी का हाथ अपने आप उसके सिर पर  . . .और अनायास ही मुँह से निकला . . ."गुण सुपूर्ति हो, . . . सदा सुहागन हो, . . . तेरा भाई जीए, साई जिए, . . . बेटा दे परमात्मा . . . अरी बस-बस बहू . . . यहाँ . . . मेरे पास आकर बैठ . . .!"

"सरला . . . तेरी तो आदत है खामखा फिकर करने की . . . लल्ला कैसी सुंदर और सुसील बहू ढूँढ़ कर लाया है . . . देखियो धीरे-धीरे सब सीख जाएगी . . ."

"जी बुआजी . . .।"

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