समृद्धि
राजीव कुमारसमृद्धि को भी पहचान की आवश्यकता हुई, चिन्तन-मनन करने के बाद उसने यत्र-तत्र भटकना प्रारम्भ किया। उड़ने के लिए पूरा आकाश और बैठने के लिए पूरी धरती को उसने पाया। दुविधा यथावत बनी रही। धरती के क़रीब पहुँची तो दुविधा में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। धरती के हिस्सों के अपने-अपने नाम थे; पता चला कि ये अलग-अलग देश हैं।
वो देशों के ऊपर मँडराने लगी।
एक देश में सिर्फ़ विदेशी क़र्ज़ का ही बोलबाला था, वहाँ समृद्धि ने ख़ुद को बंदी महसूस किया और वहाँ नहीं रुकी।
एक देश विदेशी निवेश के अधीन था, उसने आकर्षित तो किया लेकिन समृद्धि ने अपने दो टुकड़े होने का एहसास किया और वहाँ से चली गयी।
समृद्धि यत्र-तत्र भटकती रही, अन्त में सिर्फ़ उत्पादन का बोलबाला था; वहीं समृद्धि रुक गई। उत्पादन के कपड़ों से पसीने की बू आ रही थी, उसके कपड़ों में दाग़-धब्बे लगे हुए थे, समृद्धि वहीं की हो कर रह गई। समृद्धि को वहाँ दुःख व सुख का एहसास होता रहा।
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