मेला

राजीव कुमार (अंक: 196, जनवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

सजी हुई दो दुकानों के बीच खम्भा गाड़े बैलून बेचने वाला बैलून लिए खड़ा है। वहीं पर खड़ी एक नन्ही सी लड़की कभी रंग-बिरंगे गुब्बारों को देखती है; कभी गुब्बारे वाले की तरफ़ ललचायी नज़रों से देख रही है तो कभी गर्दन बायीं ओर घुमाकर जलेबी की तरफ़ देख कर लपलपाती जीभ से सुर्ख होंठ को गीला करती है। हरा, पीला, लाल, सफ़ेद गुब्बारा आकाश की ओर सीना ताने खड़ा है। स्थायी रूप से उसी ओर ललचायी दृष्टि से देखने लगती है जो अनायास ही बच्चों का ध्यान खींच लाता है। 

उस नन्ही सी बच्ची ने कहा, “हमको भी दो न गुब्बारा।” 

“दिखाना तो पैसे कितने हैं।” 

“पैसा तो नहीं है।” 

“तो मेले में क्या करने आयी हो,” गुब्बारे वाले ने तुनक कर कहा, “जा यहाँ से, बेचने दे। बिना पैसों के कुछ भी नहीं मिलता।” 

अगले ही क्षण गुब्बारे वाले के एक-दो गुब्बारे फट गए। गुब्बारे वाले ने आकाश की ओर सीना ताने हवा में लहलहाते दर्जन भर गुब्बारों की तरफ़ देखा, फिर नन्ही बच्ची की तरफ़ देखा तो बच्ची थोड़ी दूर तक चली गयी थी। गुब्बारे वाले ने आवाज़ लगाकर बच्ची को बुलाया, गुब्बारा पाकर बच्ची की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। 

बच्ची की ख़ुशी को देखकर गुब्बाने वाले ने महसूस किया कि दोनों गुब्बारे फूटे नहीं, बल्कि बिक गए हैं। 

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