कम्बल

राजीव कुमार (अंक: 196, जनवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

ज़रूरतमंदों को कम्बल दान करने के लिए जब प्लेटफ़ॉर्म पे गया तो हुजूम उमड़ पड़ा। काँपते बदन लिए कई हाथ आगे बढ़ गए, सिवाए एक बुढ़ी भिखारिन के। उस पर नज़र टिक गई, वो बड़बड़ा रही थी, “हम क्या भिखारी हैं, मेरे पास क्या नहीं है? दस कम्बल हैं, चार रजाइयाँ हैं और एक दर्जन चादरें हैं।” 

हाड़-माँस कँपकपा देनेवाली ठंड में भिखारिन का पुरा बदन काँप रहा था और दाँत भी कटकटा रहे थे। उसके बदन पर कम्बल डाल कर कहा, “लो अम्मा, अब तो तुम्हारे पास ग्यारह कम्बल हो गए।” 

काश्मीरी कम्बल को ओढ़ कर उस भिखारिन को जो गर्मी प्राप्त हुई, उस एहसास ने मेरे मन-मस्तिक को गर्मी प्रदान कर दी।

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