प्रेम ने किया नतमस्तक

15-06-2025

प्रेम ने किया नतमस्तक

राजीव कुमार (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

बात रुपये-पैसे पर आकर रुक गई थी। माँगने वाला एक रुपया भी नहीं छोड़नेवाला था और देनेवाला एक रुपया भी देने के पक्ष में नहीं था। विचित्र समस्या उत्पन्न हो गई थी। दहेज़ का रिवाज़ प्रेम सम्बन्ध पर भारी पड़ने वाला था। 

सुनसान सड़क पर जय और गौरी चले जा रहे थे, दोनों ही गुम, अपने आप में खोए थे। मसला ही इतना गंभीर था। गौरी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, “तुम अपने बाप का मुँह तो बंद कर सकते नहीं और प्यार में जान देने की बात करते हो। तुम्हारे पिता जी माँग तो ऐसे रहे हैं जैसे मेरे पिता जी को रखने दिया हो या फिर धारते हैं।”

अपने पिताजी पर झुँझलाया हुआ जय कोई रास्ता निकालने में व्यस्त था, इसलिए उसने गौरी की किसी बात का जवाब नहीं दिया। जय की इस चुप्पी का गौरी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। गौरी के मन में कैसे-कैसे विचार पनपने लगे। किए गए वादों का शाब्दिक अर्थ फ़ुज़ूल प्रतीत होने लगा। वादों और दाबों का झूठा प्रतीत होना गौरी के मन-मस्तिष्क में खलबली पैदा करने लगा। सोचने-समझने और परखने की शक्ति क्षीण होने लगी। प्यार शब्द बीमार प्रतीत होने लगा। 

जय के मन में विचार आ रहे थे कि प्यार को छोड़ना भी मुश्किल और पिताजी तो एक रुपया भी छोड़ेंगे नहीं, मतलब कि दोनों तरफ़ से मेरी ही जान जा रही है। 

एकबारगी जय के मन में आया कि क्यों न रूपया-पैसा कमा कर लाऊँ और पिताजी का मुँह बंद कर दूँ। अगले ही क्षण इस विचार से डगमगाया कि उतने दिनों के बाद तो गौरी का व्याह कहीं न कहीं हो ही जाएगा। अचानक मन में विचार आया कि गौरी को लेकर कहीं फ़रार हो जाऊँ, मगर यह सोचकर डर गया कि उसके दोस्त मनोरंजन के साथ जो हुआ था, किडनैप का झूठा केस लाद की कहीं फँसा न दे। 

जय अब सोच की दुनिया से बाहर आया और गौरी से पूछा, “तुम कितने दिनों तक भूखी-प्यासी रह सकती हो?”

जय के इस सवाल गौरी थोड़ा मुस्करायी फिर गंभीर होकर बोली, “यहाँ जान पर बनी है और तुमको मज़ाक़ सूझ रहा है।”

जय ने कहा, “अरे नहीं, मज़ाक़ नहीं कर रहा हूँ। देखो हम लोग अपने-अपने घर में भूख हड़ताल करेंगे। इससे होगा कि मेरे घर वाले झक कर, दहेज़ की बात को भूल जाएँगे और हमदोनों का व्याह करवा देंगे।”

दिन भर तो जय भूखे-प्यासे रह गया मगर साँझ ढलते ही भूख बरदाश्त से बाहर होने लगी। रात को जय को लगा कि दो तीर एक साथ चुभ गए हैं। एक तो भयंकर भूख औद उस पर नींद भी ग़ायब। अनपच और पेट भरे होने का बहाना तो एक ही दिन चला। अगले दिन माँ के हाथ में थाली थी और मुँह में सवाल कि “खाना क्यों नहीं खा रहा है?”

जय ने कहा, “भूख हड़ताल में हूँ माँ।”

जय की इस बात पर माँ ने झुँझला कर कहा, “तुम्हारे पिताजी यह बात सुनेंगे तो खाने भी नहीं देंगे और ऊपर से दो लात जमा भी देंगे। खाना खा ले बेटा।”

तीसरे दिन जय के पिता जी आए तो थे मारने के लिए मगर तबियत बिगड़ी हुई देखकर अस्पताल में भर्ती करवाया। 

जय के पिता ने बिना दहेज़ लिए जय और गौरी का व्याह हो जाने दिया। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
कविता - हाइकु
कविता-ताँका
लघुकथा
सांस्कृतिक कथा
कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में