घर पर सब कैसे हैं!
महेश कुमार केशरी
मैं दिल्ली जैसे महानगर
में जाना चाहता हूँ।
और भी
बहुत सारे महानगरों में
मुंबई नहीं बंबई तब का बंबई
कोलकाता नहीं कलकत्ता पुराना कलकत्ता
चेन्नई नहीं मद्रास पुराना वाला मद्रास
और मिलना चाहता हूँ
अपने ही तरह के सीधे-साधे
मनई से जो निपट देहाती हो
जो, किसी अजनबी को
भी देखते ही गर्म जोशी से मिले!
झपट कर छीन ले झोला,
बैग, या थैला
बड़े अधिकार से
और बिना औपचारिकता के
पकड़ ले हाथ और खींच कर
ले जाये रिक्शे तक कि ये
हमारे शहर में पहली बार आए
हैं . . . मेहमान हैं हमारे!
इन्हें मेरे घर पर ले चलो
ख़बरदार किराया इनसे मत लेना
मैं दे रहा हूँ . . .
जिसे पता हो बड़े शहर की
तकलीफ़ें, फ़ाक़ाकशी के दिन . . .
सर्दियों में फ़ुटपाथ पर की ठंड
गर्मियों की तपती हुई सड़क
एक कुरता, एक लुँगी . . .
एक हवाई चप्पल, एक गमछा।
एक बीड़ी का बंडल जब
बात का छोर टूटने लगे तो
वो लाल चाय बनाने में जुट जाये
अपने धुँआए स्टोव पर सस्पेन में
एक बीड़ी जलाकर सामने से दे
और पूछे एक सवाल कि घर
में सब कैसे हैं?
इधर शहर कैसे आना हुआ?
अच्छा अम्मा बीमार हैं कोई बात नहीं
तुम जितने दिन चाहो यहाँ रह सकते हो
आराम से इलाज करवाओ
खाने-पीने की भी चिंता मत करो
मेरे पास जो थोड़े बहुत पैसे हैं
उनसे काम चलाओ।
घर पर ख़त मत लिखना
नहीं फोन भी नहीं करना है
सब लोग परेशान हो जायेंगे
क्या जाॅब के सिलसिले में आये हो
ये भी अच्छा रहा हमारे गाँव का कोई
लड़का अफ़सर बना है
और वो तुम हो इससे बड़ी बात और
ख़ुशी मेरे लिए
भला और क्या होगी!
चलो, मैं अफ़सर ना बन सका
अपना ही कोई भाई बना है
समझो मैं ही आज अफ़सर बन गया!
मेरी चिर-संचित अभिलाषा आज पूरी हो गई
कल ही जाकर देवी स्थान में बताशा चढ़ाऊँगा
मैं भी, समस्तीपुर से नौकरी की तलाश में
यहाँ आया था
नौकरी तो ना मिली बेलदारी का काम करने लगा
ख़ैर; मैं बहुत ख़ुश हूँ
वो, इस बात की भनक भी ना लगने दे
कि कितने दिन वो जब शहर में नया-नया आया था
तो महीनों भूखा सोया,
बाहरी, भीतरी, लोकल और बाहर वाले की बीच
की खाई को पाटते-पाटते कितनी लाठियाँ खाईं
आज भी पीठ पर नीले निशान हैं
पर फिर भी टिका रहा,
दिल्ली, बंबई, कलकत्ता और मद्रास में
गँवई आदमी छुपा जाए अपनी मुस्कुराहट में अपने शहर
में रहने की दास्तान!
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