कान है, तो जहान है
महेश कुमार केशरी
हमारे शरीर के अभिन्न हिस्सों में कान है। कान की महिमा अपरंपार है। कान के बिना कोई काम नहीं हो सकता। आपको चश्मा पहनना है। तो कान चाहिए। ईयर फोन लगाना है तो कान चाहिए। बिना कान के कुछ नहीं हो सकता। ये कान ही है जिसका चालीसा हम बचपन से ही सुनते आ रहे हैं। बचपन में मास्टर साहब कहते थे—होमवर्क करके नहीं लाये तो कान पकड़कर मुर्ग़ा बन जाओ। ये अलग बात है कि आज तक मैंने मुर्ग़े का कान नहीं देखा। मुझे मुर्ग़े के कान को देखने की बहुत इच्छा थी। लेकिन आज तक नहीं देख पाया। मैं सोचता हू़ँ कि मुर्ग़े ने कब कान पकड़ा होगा कि उसको देखकर टीचर को याद आया होगा कि हर शरारती छात्र को कान पकड़कर मुर्ग़ा बनने की सज़ा दी जाये।
स्कूल में अध्यापक अक्सर समझाते, “जो मैंने पढ़ाया है। उस पर ध्यान दो। दूसरे क्या कहते हैं, उस पर कान मत दो।” कभी किसी को कहते सुना, “कान खोलकर सुन लो। तुम्हारा ये काम मैं कभी ज़िन्दगी में नहीं करूँगा।”
बचपन और जवानी के दिनों में अक्सर लोग समझाते—कौआ कान लेकर उड़ गया। तुम कान देखोगे या कौए को? वग़ैरह-वग़ैरह। ख़ैर जो भी हो।
बड़े हुए तो माता-पिताजी समझाते कि मेरी हर बात कान खोलकर सुन लिया करो। मानो मैं हर बात पर कान बंद करके सुनता होऊँ, आजतक।
बुआ हमेशा कहतीं, “ये लड़का मेरी बात पर बिल्कुल कान नहीं देता।” मैं हमेशा ऐसे लोगों से पूछना चाहता हूँ कि जब इन लोगों के पास अपने-अपने कान हैं ही तो ये लोग दूसरे तीसरे लोगों से कान क्यों माँगते हैं?
“कान खोलकर सुन लो” मुहावरे का सही अर्थ तब पतियों को समझ में आता है जब उनकी शादी हो जाती है। दिन में हर दूसरी-तीसरी बात पर पत्नी बरजती है, “तुम मेरी बात पर बिल्कुल कान नहीं देते। कल तुमसे बाज़ार से आलू लेने को कहा था। और तुम भिंडी उठा लाये। और भिंडी लाये भी हो तो कैसी; बिल्कुल सड़ी हुई। कान के साथ-साथ तुम्हारे हाथ और आँखें भी ख़राब हो गईं हैं क्या? देखकर नहीं ला सकते थे? सारे टमाटर सड़े निकले।”
पति कभी ऊँचा बोल दे तो पत्नी कहती है, “इतना ऊँचा क्यों बोलते हो? कान अभी सही सलामत हैं, मेरे। तुम लोगों की चाकरी कर-कर के मेरा दिल और दिमाग़ दोनों ख़राब हो गया है। एक कान ही बचा है। जो अभी सही सलामत हैं।”
और अगर ग़लती से आपने कह दिया, “तुम्हारे कान ख़राब हैं क्या? तुम ऊँचा सुनती हो।” तब तो घर में महाभारत होना लगभग तय ही है। वैसे महाभारत से गुरुजी याद आये। गुरुजी जो कान खींचते थे। वो भी भला क्या कान खींचते थे . . . जब तक कान लाल ना हो जाये। कान पकड़कर मुर्ग़ा बनना भी उन दिनों मुर्ग़ासन की तरह था। एक तरह से मुर्ग़ा बनने से व्यायाम भी हो जाता था। जब से लोग नौकरी में आये हैं, कुर्सी ही तोड़ रहें हैं। पेट ढोल की तरह बाहर निकला जा रहा है। गुरुजी के समय मुर्ग़ासन करने से मुर्ग़े की तरह हमारा पेट भी अन्दर था। और हम मुर्ग़े की तरह पतले-दुबले और फ़िट भी थे।
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