रूममेट

15-11-2023

रूममेट

महेश कुमार केशरी  (अंक: 241, नवम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

कमबख़्त कुछ भी तो नहीं बदला है। सारी चीज़ें, ज्यों-की-त्यों अपनी जगह पर जमा हैं। लगता है जैसे कैलेंडर को उठाकर एक आले से दूसरे आले पर रख दिया गया हो। रौशनी, में क्या बदला है? सब कुछ तो वैसा ही है। अलबत्ता बालों के बीच से कुछ सफ़ेदी झाँकने लगी है। लेकिन वो पहले की तरह ही ख़ूबसूरत है। नख से शिख तक। गोरा रंग, लंबी नाक, कत्थई आँखें ईश्वर ने जैसे उसे बहुत ही मेहनत से बनाया है। 

“अरे तुम . . . कैसे हो . . .? बहुत दिनों के बाद . . .” 

रमेश बस मुस्कुरा कर रह भर जाता है। 

उसके साथ एक चार-पाँच साल का बच्चा भी है। चेहरा कुछ-कुछ रौशनी से ही मिलता-जुलता है। ये शायद दूसरा बच्चा है। क्योंकि जहाँ तक रमेश को उससे मिले कुछ बीस-बाईस एक साल तो हो ही गये होंगे। 

“ये . . . दूसरा . . .वाला है। मेरा छोटा बेटा,” उसने तस्दीक़ की। 

“कितने साल का है?” 

“इस साल पाँच साल का हो जायेगा।” 

कुछ देर उनके बीच चुप्पी के कतरे तैरते रहते हैं। समय का हर एक सेकेंड जैसे किसी राक्षस की तरह रमेश को अपने जबड़े में खींच लेने को तैयार है। 

लेकिन, ये भारी पल रौशनी को भी उसके सीने पर किसी पत्थर की मानिंद लगते हैं। शायद वे दोनों ही इस स्थिति के लिये तैयार नहीं हैं। कभी-कभी हमारे जीवन में हम ऐसे पलों को भी महसूस करते हैं। जिसमें हम ईश्वर से ये कामना करते हैं कि ये पल हमारी ज़िन्दगी से अगर निकाल दिये जायें। तो हम ईश्वर के आजीवन ऋणी रहेंगे। 

तभी रौशनी ने बच्चे को संबोधित किया, “अर्णव . . .” 

अर्णव अपनी माँ की तरह ही समझदार है। झुककर रमेश के पैरों को छूता है। 

रमेश बच्चे को पुचकारता है, “अरे, नहीं बेटा . . .! ये सब नहीं।” 

“बड़ा प्यारा नाम है, अर्णव। और उतने ही प्यारे हो तुम। ख़ूब पढ़ो। ख़ूब तरक़्क़ी करो तुम। भगवान् से यही प्रार्थना है मेरी।” 

रमेश, रौशनी को आँखें कड़ी करके देखता है, “तुम्हें तो पता ही है। मुझे शुरू से ही ये सब पसंद नहीं है।” 

रौशनी बस मुस्कुरा कर रह भर जाती है। 

रमेश खिलौने की दूकान से एक चाॅकलेट ख़रीद कर अर्णव की ओर बढ़ा देता है। वो माँ की तरफ़ देख रहा है। मानों उसे माँ से इजाज़त चाहिये। 

रौशनी मुस्कुराते हुए, अपनी मौन स्वीकृति दे देती है। अर्णव चाॅकलेट लेकर खाने लगता है। 

“और क्या हो रहा है? अभी दिल्ली में ही हो या . . .?” जैसे रौशनी पूछना चाह रही हो। अभी भी सिविल सर्विसेज़ की तैयारी में ही लगे हो, रमेश . . . या . . . 

सकुचाते हुए रमेश जवाब देता है, “नहीं अब मैं मॉस्को, में रहता हूँ। यहाँ पर जे.एन.यू. के रूसी भाषा विभाग के सालाना वार्षिकोत्सव में भाग लेने आया था। हर साल आता हूँ। यहाँ के प्रोफ़ेसर, सब मुझे जानते हैं। वहाँ मैं रूसी भाषा और साहित्य पढ़ाता हूँ। कुछ साल प्राग में भी रहा। वहाँ बच्चों को रूसी भाषा और साहित्य पढ़ाता था।” 

रमेश अपने शब्दों के सिरे को एक बार फिर से, जोड़ता है, “मैं अब भारतीय नहीं हूँ। मैंने रूसी नागरिकता ले ली है। अब रूस में ही मेरा घर है।” 

“ओह! इसलिये तुम्हारे चेहरे का रंग इतना लाल हो गया है। और तुम्हारे बाल भी तो ललिहाँ-भूरे दिख रहे हैं। लेकिन, तुम, तब भी ख़ूबसूरत थे। और आज भी हो।” 

रमेश के दिल में एक बार आया कि वो कह दे कि, तब, तुम्हें कहाँ मेरी ख़ूबसूरती दिखी थी? 

लेकिन, इन सब बातों का अब कोई मतलब भी नहीं है। 

“शादी हो गई या ऐसे ही हो . . . अब तक . . .?” वो शायद ऐसे ही पूछती है। 

लेकिन, उसके लिए इसका उत्तर देना आसान नहीं होता। 

“हाँ, रूस में एक सर्लिन कुरसोवा नाम की लड़की है। मैंने उससे शादी कर ली है। वो भी रूसी भाषा और साहित्य माॅस्को यूनिवर्सिटी में पढ़ाती है।” 

फिर वो आगे जोड़ता है, “तुमसे कुछ दस-एक साल छोटी ही होगी। दरअसल वो मेरी छात्रा थी। मैं उसे रूसी भाषा पढ़ता था।” 

वो रौशनी को जलाने के लिया कहता है, “दरअसल वो मेरे रूसी भाषा के ज्ञान और व्याकरण की शुद्धि के कारण ही मुझसे प्रभावित हुई थी। मैंने कई देशों की यात्राएँ की कुछ साल फ़्राँस में भी रहा। कुछ साल जर्मनी और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में भी प्रोफ़ेसर रहा। वहाँ, मैं, रूसी भाषा और साहित्य पढ़ाता रहा।” 

वो, अतीत के किसी पतझड़ वाले साल के पत्ते बटोरने लगता है। जिसके पत्तों में उसके आँखों की नमी जज़्ब है। 

♦    ♦    ♦

रौशनी के शब्दों में तो उसने यही कहा था, “प्रैक्टिकल बनो यार, प्रैक्टिकल! इतना मन-मसोसने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हें मुझसे भी अच्छी लड़की मिल जायेगी। 

“अगर, घर वालों का दबाव ना होता तो मैं तुमसे ही शादी करती। लेकिन, मम्मी-पापा का दबाव है। मैं अपनी मर्ज़ी से कुछ नहीं कर रही हूँ। तुम्हें तो पता है। हम मिडिल क्लास लोग हैं। आज भले ही मेरा यू.पी.एस.सी. क्रैक हो गया है। लेकिन, अपने मम्मी-पापा को मैं ना नहीं बोल सकती।” 

किसी ने सही कहा है। वक़्त, इंसान और आदमी के हालात बदलते रहते हैं। 

रमेश के मन में उस वक़्त ये ख़्याल आया था कि वो कह दे कि ना तो सिर्फ़ तुम मुझे ही कह सकती हो। तुम्हारे लिये ये आसान भी है। लेकिन, तुम ये क्यों नहीं समझती कि हम एक-दूसरे से प्यार करते हैं? 

लेकिन, यहाँ प्यार कौन कर रहा था? सही बात है। पद और प्रतिष्ठा मिलते ही आदमी अपनी औक़ात भूल जाता है। उसको अपने ख़ुद के जैसे साधारण लोग भी बेहद घटिया और दो कौड़ी के लगने लगते हैं। तो क्या रमेश भी रौशनी की नज़रों में दो कौड़ी का आदमी था? नहीं उसे, वो पिछले सात-आठ सालों से जानता है। उसकी बातों से कभी उसे ऐसा नहीं लगा कि वो इस तरह से बदल जायेगी। कि एक सिरे से उसके और अपने रिश्ते को खारिज़ कर देगी। कभी-कभी रमेश ये भी सोचता कि बेकार ही वो रौशनी से मिला। बेकार ही उसने रौशनी को रूम पार्टनर बनाया। अगर, रूम पार्टनर भी बनाया तो एक दूरी बनाकर रखता उससे। लेकिन नहीं। ऐसा नहीं हो सका। शुरूआती दिनों से ही वो रौशनी को दिल से चाहने लगा था। वो देवी की तरह उससे प्रेम करता था। रौशनी, उसके लिये प्रेम की नहीं, श्रद्धा की वस्तु थी। अगर, वो रौशनी से नहीं मिलता। या अगर वो उसकी रूम पार्टनर नहीं होती—तो क्या वो उससे प्यार कर पाता? नहीं ना। दिल्ली बहुत बड़ा शहर है। सैकड़ों-लाखों लड़कियाँ आतीं हैं इस शहर में। क्या उसे सब लड़कियों से प्रेम हो जाता? नहीं ना। ये तो संयोग ही था कि उससे रौशनी की मुलाक़ात हो गई और वो उसकी रूम पार्टनर बन गई। क्या कोई और लड़की उसकी रूम-पार्टनर होती तो क्या वो, उससे भी प्रेम कर बैठता? नहीं, उसे पता नहीं। वो, कुछ भी सोचना नहीं चाहता था। या वो इस सवाल को टाल जाना चाह रहा था। उन दिनों उसकी हालत बिल्कुल पागलों की तरह हो चुकी थी। रौशनी से ब्रेकअप के बाद उसने सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करना ही छोड़ दिया था। उसे रौशनी नाम और सिविल सेवा की तैयारी से चिढ़ सी हो गई थी। उसका आत्म-विश्वास जाता रहा था। उसने मुखर्जी नगर के अपने उस पुराने फ़्लैट को भी छोड़ दिया था। अब वो भाषा और साहित्य को पढ़ने लगा था। अब उसे लुशून, मैक्सिम गोर्की, विक्टर ह्यूगो, को पढ़ना अच्छा लगता था। अब उसे, चीनी, रूसी, जापानी भाषा का साहित्य पढ़ना-लिखना बहुत भाने लगा था। इस घटना के बाद उसने जे.ऐन.यू. के भाषा विभाग में दाख़िला ले लिया था। वहीं उसने कई विदेशी भाषाओं का अध्ययन किया। उनके साहित्य के अध्ययन में जुट गया। बाद में उसे मॉस्को यूनिवर्सिटी में बतौर प्राध्यापक की नौकरी मिल गई थी। बहुत साल रूस में रहा। वहाँ अध्यापन का कार्य किया। प्राग से जब रूसी भाषा पढ़ाने का उसको सामने से मौक़ा मिला। तो वो टाल ना सका। 

वो, कभी-कभी अख़बार के कतरनों के कोनों-अंतरों में ये ख़बर पढ़ता कि अमुक लड़के ने अमुक लड़की के चेहरे पर तेज़ाब से हमला कर दिया। या किसी लड़के ने लड़की को चाकू मार दिया। और, पुलिस ने लड़के को गिरफ़्तार कर लिया है। कैसे करते होंगे ऐसा लोग? ख़ासकर तब, जब वे, एक-दूसरे से प्रेम करते हों। क्या उनकी भी ऐसी ही मनोदशा होती होगी? उस समय। उस प्रेमी को, वैसा ही लगता होगा। जैसा अभी रमेश को लग रहा है। या कि जैसी उसकी मनोदशा अभी है। 

अख़बार, में कभी-कभी ये भी छपा होता कि लड़के ऐसा एकतरफ़ा प्रेम में पड़कर करते हैं। और कभी-कभी वो बलात्कार की घटनाओं के बारे में भी पढ़ता। तो उसको लगता कि क्या ऐसी मनोदशा में ही लोग बलात्कार भी करते हैं। क्या उसकी मनोदशा भी एक एसिड अटैकर की या एक बलात्कारी की हो गई है? क्या वो इतना क्रूर हो गया है? कि वो रौशनी के ऊपर तेज़ाब फेंक देगा। या उसके साथ बलात्कार करेगा। क्या वो इतना कुंठित हो गया है? लेकिन, उसे वो इतनी आसानी से भूल भी तो नहीं पायेगा। 

प्रेम को पगने में समय लगता है। आठ साल, अट्ठारह साल . . . या फिर एक सदी . . . या कई-कई सदी . . . लेकिन ये तो बिछोह था . . .। किसी जन्म में अनकिये या किये का प्रतिदान। लेकिन, इस किये-अनकिये का दुःख अकेले वो ही क्यों भोगे? जबकि प्रेम, उसने अकेले थोड़े ही किया था। जो अकेले ही प्रतिदान पाता। रौशनी को भी तो प्रतिदान मिलना चाहिए। 

प्रेम के तो नायाब उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। उसका प्रेम उदात्त प्रेम है। जैसे कृष्ण जी और राधा जी ने किया था। रोमियो और जूलियट ने, हीर और राँझा ने किया था। प्रेम में केवल लेना नहीं होता। देना भी होता है। धरती पर ऐसे कई उदाहरण हमें मिलते हैं। जो सशरीर कभी मिले ही नहीं। लेकिन, आज भी ज़माना उनकी मिसाल देता है। 

वो, जितना प्रेम के बारे में सोचता है। उतना ही उलझता जाता है। लगता है दिमाग़ के तंतु फट जायेंगे। लेकिन वो, कभी-कभी लचीला भी हो जाता है। वो मठों-मंदिरों के बारे में सोचता है। कि, वो कहीं काशी, मथुरा, हिमालय, या बनारस चला जाये। मोक्ष की नगरी। जहाँ चितायें जलती हों। जहाँ जीवन का सार पता चले। वो अपनी चिता ख़ुद जलती देखे। समझे इस निस्सार, दुनिया को। जलते हुए वो लोगों के सच-झूठ को समझे। आख़िर, ईश्वर से प्रेम भी तो प्रेम ही है। अलमस्त हो जाये। पीरों की तरह। भूल जाये घर-द्वारा, माँ-बाप की चिंता। जोगियों या साधुओं की तरह जाति-पाती, ऊँच-नीच, धर्म-मज़हब, से ऊपर उठ जाये। लोग कहते हैं ये जो, हट्टे-कट्ठे योगी हैं, महात्मा हैं, ये लोग अकर्मण्य लोग हैं। काम से भागने वाले। फिर काम कौन करता है? महलों के धन्ना सेठ, या राजनेता। सारी ज़िन्दगी वे दूसरों के श्रम पर पलते हैं। लेकिन, जिनके श्रम पर पलते हैं। उनको ही हेकड़ी दिखाते हैं। सुबह से शाम तक इनका काॅलर कभी गंदा नहीं होता। लेकिन, ये मालपुये और छप्पन भोग खाते हैं। श्रम करके खाने वाला दिहाड़ी मज़दूर अगले दिन क्या खायेगा? इस बाबत वो सोचता है। ऐसे देखा जाये तो, ये जो अलमस्त जोगी हैं, इन्होंने जीवन के सार को जान लिया है। तभी तो वे खाना बदोश हैं। बिल्कुल नदी की तरह! नदी भी तो प्रेम की तरह है, उन्मुक्त-उच्छृंखल। नयी लयात्मकता के साथ आगे रास्ता तलाशती हुई। ऊँचे-पहाड़, पठार-मैदानी-भूभाग सबको फलाँगती हुई! कोई सीमा-रेखा नहीं। ना कोई-देश, ना कोई धर्म। ना कोई जाति। ना इंसानों की तरह नफ़रती सोच। ना लोभ, ना लालच! 

प्रेम भी नदी की तरह ही होता है। बहता जाता है। नदी की तरह, स्वायत्त! देश, नागरिकता, धर्म, मज़हब, से दूर। सरहदों से परे। इसे बाँधा नहीं जा सकता। सीमाओं में। प्रेम संगीत की तरह होता है। आप किसी दूसरे देश में चले गयें हैं। आपको कोई संगीत सुनाई पडता है। और, आपकी उँगलियों और पैरों में जुंबिश होने लगती है। अपनी कुंठा के कारण ही आदमी, देश, समाज, जाति-पाति, ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, अमीर–ग़रीब में बँटा हुआ है। 

साधुओं-पीरों को कभी देखा है, चिंतित होते हुए? उन्हें नहीं पता कल क्या होगा? कल वो क्या खायेंगें? कल उनका ठौर कहाँ होगा? लेकिन, चिंता मुक्त हैं। आज यहाँ रुके। कल वहाँ। ना कोई स्थायित्व। ना कोई झमेला। झमेला तो दुनियादारी से जुड़े लोगों का है। दिन भर तनाव में बिताते हैं। नमक रोटी की जुगाड़ा में। ज़िन्दगी भर दौड़ते रहो। लेकिन कहीं शान्ति नहीं मिलती। दम भरने की भी फ़ुरसत नहीं। जैसे ज़िन्दगी की रेस में बेवजह दौड़ रहें हों। आख़िर, क्या हासिल कर लेंगें? वो ज़िन्दगी के सबसे आख़िरी छोर पर। जब, वो ये बात सोचता है कि वो बनारस या काशी या मथुरा चला जाये। और अपना दाह-संस्कार होते देखे। तो उसके शरीर में कोई झुरझुरी पैदा नहीं होती। कभी-कभी उसको लगता है। कि वो कोई दार्शनिक हो गया है। अरस्तू, सुकारात की तरह। आख़िर, ऐसी-बहकी-बहकी बातें भला कौन करता है? कोई है, जो उसके तर्कों को काटकर दिखाये? वो झूठ भी तो नहीं कह रहा। इतनी माथा-पच्ची के बाद भी वो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता। ये ज़िन्दगी भी कितनी ऊहा-पोह से भरी पड़ी है! 

लेकिन, बलिदान आख़िर, रमेश ही क्यों दे? और लालच क्या रौशनी के मन में नहीं आ गया था? वो पद-प्रतिष्ठा और रुपये-पैसों को ही बहुत ज़्यादा अहमियत नहीं देने लगी थी। क्या हुआ अगर वो यू.पी.एस.सी. क्रैक नहीं कर पाया। बहुत सारे लोग हैं। जो यू.पी.एस.सी. क्रैक नहीं कर पाते। तो, क्या उनके साथ किया, हुआ लोगों का कमिटमेंट लोगों को भूल जाना चाहिए? 

और, पैसा आदमी के जीवन में आता जाता रहता है। लेकिन, प्यार नहीं। हरीश ने बेशक यू.पी.एस.सी. क्रैक कर लिया हो। लेकिन, प्यार तुम उससे नहीं करती, ये तुम भी जानती हो। और, तुमने तो सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा पास कर ली है। तुम आज की नारी हो। आधुनिक काल की। तुम पर कोई अपने विचार थोप नहीं सकता। तुम स्वायत्त हो। कुछ दिनों में तुम्हारी ज्वाइनिंग किसी बड़े शहर में हो जायेगी। तुम प्रशासनिक अमले की प्रमुख होगी। तब भी प्रशासन को चलाने के लिये, ज़िले को सँभालने के लिये, तुम अपने-मम्मी पापा से सहयोग माँगोगी? नहीं ना . . .! उस समय तुम्हें अपने बुद्धि और विवेक का उपयोग करना होगा। क्या कोई प्रशासनिक अधिकारी कोई फ़ैसला लेते समय अपने घरवालों से पूछता है? या ख़ुद फ़ैसले लेता है . . .

प्रशासन, सँभालना और, शादी-ब्याह दोनों अलग-अलग मामले हैं। प्रशासनिक व्यवस्था सँभालते हुए हम निजी नहीं होते। लेकिन शादी ब्याह नितांत पारिवारिक और निजी मामले होते हैं। घर वालों की मर्ज़ी के बग़ैर मैं, कोई फ़ैसला नहीं कर सकती। बावजूद इसके कि हम सात-आठ सालों तक अच्छे दोस्त रहें हैं। भविष्य में भी हम अच्छे दोस्त बने रह सकते हैं। 

लेकिन, हम दोस्ती के रिश्ते से बहुत आगे बढ़ चुके हैं। इन सात-आठ सालों में हम केवल रूम-पार्टनर ही नहीं रहें हैं। बल्कि हम दोनों एक-दूसरे के सुख-दुःख के साथी भी रहें हैं। और, हम सिर्फ़ दोस्त ही नहीं हैं। ये बात तुम्हें भी अच्छी तरह पता है। अगर, मैं भी यू.पी.एस.सी. क्रैक कर लेता। तो, आज की तारीख़ में हम दोनों शादी कर रहे होते। 

“कर लेते तब ना!” रौशनी की आवाज़ अपेक्षाकृत कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो गई थी। 

“तो क्या तुम मुझसे प्यार भी नहीं करतीं . . .?” 

“बी, प्रैक्टिकल यार। डोंट बी ए फ़ूल। प्यार पहले करती थी। लेकिन, अब नहीं। लोग क्या कहेंगें? वैसे भी मुझे अब ट्रेनिंग के लिये जाना होगा। फिर मैं तुम्हें कहाँ-कहाँ लेकर जाऊँगी? उसके बाद मेरी पोस्टिंग होगी। फिर?” 

उसी समय रौशनी का फोन बजता है। रौशनी फोन लेती है। फोन उसके पिता ने ही किया था शायद। फोन पर आवाज़ कुछ स्पष्ट नहीं है। 

रौशनी कई बार हैलो-हैलो कहती है। लेकिन आवाज़ फिर भी नहीं आती। शायद नेटवर्क ख़राब था। या शायद फोन ही ख़राब था। रौशनी फोन को स्पीकर पर ले लेती है। एक बूढ़ी आवाज़ स्पीकर से कौंधती है, “क्या कर रही हो, अब तक तुम वहांँ? यहाँ हरीश के पापा का बार-बार फोन आ रहा है। उन्हें हाँ, कहूँ या ना।” 

आख़िर की लाईन रमेश की छाती में शूल की तरह पैवस्त हो जाती है, “उस कँगले रमेश को साफ़ मना कर देना शादी के लिये। हाँ मत कह देना। तुम बहुत भावुक हो, बेटी . . .” 

रौशनी, बाप की बात पूरी होने से पहले ही फोन काट देती है। 

♦    ♦    ♦

“चलती हूँ। मेरी शाॅपिंग हो गई,” रौशनी की बात से रमेश की तंद्रा टूट जाती है। 

“हाँ, चलो फिर, मिलते हैं।” 

अचानक से रमेश के दिमाग़ में हरीश का ख़्याल आता है। वो, हरीश के बारे में रौशनी से पूछता है, “तुम्हारा पति हरीश नहीं दिख रहा। वो कहाँ है?” 

रौशनी के स्वर में उदासी कहीं गहरे तक उतर आती है, “पिछले साल कोविड में वो नहीं रहे।” 

“ओह!” 

“तुम ठीक से रहना। माॅस्को में भी बहुत से लोग मर रहे हैं। मैंने पति को तो खो दिया है। लेकिन, अब एक बहुत अच्छे दोस्त को नहीं खोना चाहती। अपना ख़्याल रखना। दरअसल मेरी तक़दीर ही ख़राब है,” वो रोने लगी थी। 

“मैं तुम्हारी, अपराधिनी हूँ। मुझे मेरे किये की सज़ा मिल रही है।” 

रमेश, आज अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रहा था। वो सोच रहा था। बेकार ही वो माॅस्को गया। बेकार ही रूसी भाषा सीखी। बेकार ही प्रोफ़ेसर बना। 

तभी उसे प्रतिदान का ख़्याल आया। किसी किये-अनकिये का प्रतिदान वो अकेले कहाँ भोग रहा था? कभी-कभी मिथक भी सच हो जाते हैं! 

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