ग्रहण
महेश कुमार केशरी
सेठानी ने सेठजी से पूछा, “खाना खा लिया।”
सेठजी गल्ले की चाभी दराज़ में रखते हुए बोले, “नहीं।”
“अब खाकर क्या करोगे। अब तो ग्रहण लग गया है।”
“ग्रहण?”
“हूँ।”
“आज ग्रहण था। सात बजे से ही लगा हुआ है। तुमको नहीं पता?” सेठानी पूछा।
“अरे, भाग्यवान मैं धँधे-पानी वाला आदमी हूँ। दिन-भर ख़रीद-बिक्री करे हूँ। टाइम कोनी,” सेठजी ने अपनी व्यस्तता गिनवाई।
♦ ♦
भादों की पूर्णमासी। पहाड़ों पर लगातार बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएँ हो रहीं थी। आदमी और जानवर सब परेशान थे। इस प्रलय जैसी हालत ने आदमी को उसकी औक़ात बता दी थी। पहाड़ों पर दस दिनों से लगातार मूसलाधार बारिश हो रही थी। पहाड़ भर-भराकर गिर रहे थे। जान बचाना मुश्किल था।
सड़क पर निक्कू भिखारी और उसका कुत्ता भूख से बिलबिला रहे थे। कल से उन्होंने कुछ नहीं खाया था।
परसों तो गाँव में कहीं लंगर चल रहा था। भिखारी वहाँ खा आया था। वहाँ बाक़ी बचे जूठन को टोनी चट कर गया था।
लेकिन आज बहुत बारिश हुई थी। रात के दस बज रहे थे। निक्कू भिखारी और कुत्ता दोनोें समझ गए थे कि आज अब उन्हें खाना मिलने से रहा। लिहाज़ा लालटेन बुझाकर वो दोनोें कंबल में घुस गए थे। शरीर के एक-दूसरे से सटे होने के कारण उन दोनों को ऊष्मा मिल रही थी। गीली लकड़ियों के कारण झोपड़़ी में धुआँ भर गया था। हाथ को गलाने वाली ठंड पड़ रही थी। क़ुदरत का क़हर ही था कि दस दिनों की बारिश के बाद अब बर्फ़ भी पड़़ने लगी थी। ये ठंड कोढ़ में खाज की तरह थी। बाल मुड़ाते ही ओले पड़ने की तरह।
कुत्ता और निक्कू भिखारी के पेट में कुछ नहीं था। दोनों का पेट चिपट गया था। निक्कू ने सोचा पेट दर्द कुछ कम हो सकता है अगर थोड़ा पानी उबाल कर पी लिया जाए। लेकिन इसका उल्टा भी तो हो सकता है। ख़ाली पेट होने की वजह से पेट ही दुखने लगे। दूसरी बात काहिलपन की थी। ठंड ने निक्कू को कर्त्तव्यहीन बना दिया था। ठंड तो बहुत बड़ी वजह थी ही। आदमी ठंड में अकर्मण्य हो ही जाता है।
ठंड ने जैसे निक्कू को जकड़ लिया था। कंबल से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं पड़़ रही थी। दोनों सोच रहे थे। कहीं से कोई सूखी रोटी ही लाकर दे दे। कहीं से अगर पुराना सड़ा-गला हुआ खाना भी मिल जाए तो नाक बंद करके वो भी खा लें दोनों। ज़िन्दा रहना अभी चुनौती की तरह था उस रात। अच्छा कल मौसम अगर साफ़ हुआ तो कहीं लंगर में चलकर खाना खा लिया जाएगा। लेकिन कल तक ज़िन्दा बचे तब तो।
♦ ♦
“क्या करूँ निकाल दूँ खाना?” सेठानी ने पूछा।
सेठजी ने प्रश्न किया, “हू़ँ! कब बनाया था, खाना?”
सेठानी ने बताया, “शाम को ग्रहण से पहले।”
“तो कौन खाएगा अब।?दोष लगेगा। ग्रहण के समय या उससे पहले बना भोजन दूषित हो जाता है।”
“क्या करूँ फेंक दूँ? माया भी लग रहा है। घी का हलवा बनाया था। शुद्ध देशी घी में!”
“अब दूषित भोजन कौन करेगा? फेंक दे बाहर। गाय खा जाएगी।”
सेठानी ने खिड़की के पल्ले को खोला। और लिफ़ाफ़े में लपेटकर हलवा सड़क पर फेंक दिया।
सेठ का ठिकाना ऊपर था। और निक्कू भिखारी की झोपड़़ी उसके ठीक नीचे।
निक्कू के कुत्ते के पास आकर ही वो लिफ़ाफ़ा गिरा। टोनी भौं-भौं करता हुआ उधर लपका। थोड़ी देर तक लिफ़ाफ़े को सूँघा। फिर लिफ़ाफ़ा उठाकर झोपड़़ी में ले आया। लकड़ियों के जलने की वजह से झोपड़़ी कुछ गर्म हो गई थी।
“ला बेटा ला। शाबाश बेटा! तु् कितना बहादुर है। बग़ैर ठंड की परवाह किए ही बाहर निकल गया।”
निक्कू ने लिफ़ाफ़ा खोलकर देखा। उसकी आँखें विस्मय से और बड़ी हो गईं।
“शाबाश बेटा। इसीलिए मैं तुझे अपने साथ लेता आया था। चाहता तो लिफ़ाफ़ा तू उधर ही फाड़कर खा लेता। इंसानों की तरह तू बेईमान नहीं निकला रे। तू जानवर होते हुए भी इंसानों से बेहतर है।”
और निक्कू ने टोनी को अपनी बाँहों में भर लिया।
टोनी पूँछ हिलाने लगा। पूँछ हिलाकर वो अपनी स्वामी भक्ति का प्रदर्शन कर रहा था।
थोड़ी देर बाद वो कूँ-कूँ करके कुँकियाने लगा। बार-बार अपने पँजे पेट पर रगड़ रहा था। मानो कह रहा हो। मुझे भी भूख लगी है। खाना दो।
“हाँ मालूम है। तूझे भूख लगी है। देता हूँ देता हूँ। थोड़ा सब्र कर।”
थोड़ी देर बाद उसने हलवा खाना शुरू कर दिया। तभी उसको उसका साथी गुल्लू झोपड़़ी की तरफ़ आता दिखाई दिया।
“क्या गुल्लू ठंड लग रही है।”
“हाँ भैया मेरी दियासलाई अँधेरे में कहीं मिल नहीं रही है। एक बीड़ी सुलगानी थी।”
“ले ले धूरे में आग जल रही है।”
“क्या खा रहे हो भइया?”
“हलवा है खाएगा?”
गुल्लू कुछ नहीं बोला। दिया-सलाई से बीड़ी सुलगाकर धुआँ नथुनों से छोड़ने लगा।
“नहीं भइया आज चंद्र ग्रहण है। मैंने शाम को ही खा लिया था। आप ग्रहण में क्यों खा रहे हैं दोष लगता है।”
“भाई भूख से बड़ा ग्रहण कोई नहीं होता है। भरे पेट वालों के लिए है ग्रहण। ख़ाली पेट वालों के ऊपर तो हमेशा से ग्रहण लगा होता है।”
टोनी ने पूँछ हिलाकर निक्कू की बात का समर्थन किया। जैसे कह रहा हो मालिक ठीक कह रहें हैं।
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