पहचान का संकट . . .
महेश कुमार केशरीशाम का धुँधलका गहराने से
पहले, चल पडा है, भेड़ों और
बकरियों का झुंड
पक्षी-गौरैये, सब के सब अँधेरा
होने तक पहुँच जाना चाहते हैं
अपने ठौर-ठिकाने तक
ताकि, वो बिछड़ ना जाएँ
अपनी झुंड से
बिछड़ने के अपने बडे़
जोखिम हैं
अपने समुदाय-समूह से
कट जाना
पशु-पक्षियों
के लिए ये आसान नहीं होता
आदमी के लिए भी
ये बहुत मुश्किल होता है
पशु-पक्षी समूह में होकर
अपनी सुरक्षा को लेकर
आश्वसत होते हैं
तभी तो वो चलते हैं झुंड में
एक लोहे के सरिये को मोड़ना
बहुत ही आसान होता है, लेकिन
बहुत सारे
सरिये को एक साथ मोड़ना बहुत
ही मुश्किल होता है
इस उक्ति को भली-भाँति जानता है
आदमी
लेकिन, आदमी ने मोल लिया है जोखिम,
और भटक गया, धर्म, जाति, संप्रदाय, नस्ल
और गोरे-काले के भेद के बीच कहीं
और खो दी है मनुष्य ने अपनी पहचान
और, आदमी जब बँट गया है
तो बहुत ही असुरक्षित
हो गया है
इसलिए आदमी को लौटना
होगा वापस झुंड बनाकरअपने
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