ईमान
महेश कुमार केशरी
“एक, दो . . . तीन, चार, पाँच, छह।” वैभव अपने बैग गिन रहा था।
तभी किसी ने उसे पीछे से आवाज़ लगाई, “बाबूजी, ये सामान मैं ले, लूँ।”
”हूँ। अरे, नहीं हो जायेगा। मैं उठा लूँगा।”
“ अरे इतना सामान आप कैसे उठायेंगें? लाईये मैं आपकी मदद करता हूँ।”
“आपको तो स्टेशन जाना है, ना?”
“हूँ . . .”
वो एक अट्ठारह-बीस साल एक लड़का था। मूछों के नाम पर बस महीन सी एक लकीर भर उभरी थी।
“अरे लेकिन तुमको कैसे पता कि मुझे स्टेशन जाना है? और तुम इतना सामान उठा पाओगे क्या? . . . नहीं-नहीं रहने दो।”
वैभव कुछ और कह पाता कि लड़के ने कुछ बैग कँधे पर और कुछ हाथों में उठा लिए।
“अरे, मैं कह रहा हूँ ना। मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं है। मैं कर लूँगा।”
“बाबूजी आपको कोई ज़रूरत नहीं है। लेकिन इस पेट की तो ज़रूरत होती है। सबकी। आपकी-हमारी। इसी पेट की ख़ातिर तो आदमी सही-ग़लत करता है। तमाम तरह के अपराध जो हमारे समाज में होते हैं। वो इसी पेट की ख़ातिर तो होते हैं। ये आदमी के ईमान पर है कि वो कौन सा रास्ता चुनता है। आज मेरी ज़रूरत है। इस समय मुझे बहुत भूख लगी है, बाबूजी। आज सुबह से कुछ नहीं खाया है।”
वो लड़का रुँआसा हो गया था।
वैभव का दिल पसीज गया, बोला, “लेकिन तुम सारा नहीं ले जा पाओगे। सिर्फ़ तीन बैग तुम लोगे बाक़ी के सारे मैं ले चलूँगा।”
लड़के ने आँखों के कोर पोंछते हुए कहा, “ठीक। लेकिन, पैसे पूरे लूँगा। पचास रुपये।”
वैभव हँसते हुए बोला, “हाँ, ठीक है, चलो।”
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