कुदाल
महेश कुमार केशरी
कुदाल छीलती है
धरती का सीना और
उगाता है सोना . . .
कुदाल के होने का मतलब
है, हम भाग्य के भरोसे
नहीं बैठे हैं
हम हाथ और कुदाल
के भरोसे बैठे हैं
कुदाल और हाथ मिलकर
धरती के पेट से निकालेंगे
सोना
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- इंतज़ार में है गली!
- इसी देश में कहीं
- ईश्वर की प्रार्थना में अगरबत्तियाँ
- ओस
- कील-2
- कुदाल
- जनवरी की रात
- जल
- तबसे आदमी भी पेड़़ होना चाहता है!
- ताप
- ताले में बंद दुनिया
- दुःख बुनना चाहिए . . .
- पहचान का संकट . . .
- पहाड़ और दुःख
- पिता और पेड़
- पिता के हाथ की रेखाएँ
- पिता दु:ख को समझते थे!
- पीठ पर बेटियांँ . . .
- बेहतर बहुत बेहतर . . .
- मिट्टी
- मज़दूरी
- सूखा
- सूरज
- हवा
- कहानी
- लघुकथा
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-