बड़ी खिड़की
महेश कुमार केशरी
“खिड़की का साइज़ बड़ा करो। इसका डबल होना चाहिए,” पारस ने रेजा मिस्त्री को बोला।
“लेकिन, बाबूजी बड़ी खिड़की तो बड़ी बेढब लगेगी। इसी साइज़ का रहने दीजिए, ना।”
“नहीं भाई बड़े साइज़ की ही बनाओ। दरअसल बात ये है भाई कि मेरी माँ को बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाला घर पसंद था। उसको गर्मी बहुत लगती थी। अक्सर कहती रहती थी। बेटा जब घर बनाना तो उसमें बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ लगना। मुझे गर्मी बहुत लगती है।”
“लेकिन, भैया माँ तो अब इस दुनिया में नहीं है। फिर? किसके लिए ये बड़ी खिड़कियों वाला घर बनवा रहे हो?” मेहुल ने टोका।
“भाई, मेहुल, मेरी माँ बहुत ग़रीब थी। दूसरों के घरों में कपड़े-बरतन करके माँ ने मुझे पढ़ाया-लिखाया। उसका एक ही अरमान था। कि उसका एक अपना पक्का घर हो। जिसकी खिड़कियाँ बड़ी-बड़ी हों। माँ के जीते जी तो मैं उसका पक्का मकान ना बनवा सका। लेकिन उसके मरने के बाद बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाला मकान बनवा रहा हूँ,” पारस की आँखें पुराने दिनों को याद करके बरसने लगीं थीं।
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