सॉरी दीदी . . .
महेश कुमार केशरीमालती ने अपने भाई, सुभाष को उलाहना देते हुए कहा, “तुम को तो क्षण भर का भी समय नहीं रहता होगा, कि अपनी बहन और, अपने भाँजे की कभी ख़ैर-ख़्वाही ही पूछ लो। उस दिन जब मेरे बेटे ने प्रतियोगिता परीक्षा में टॉप किया तो, सोशल मीडिया पर बधाइयों का ताँता लग गया, लेकिन, तुम्हें शायद ख़ुशी नहीं हुई, होगी। तुम तो . . . सोशल मीडिया पर भी बहुत एक्टिव रहते हो। फिर भी . . . कभी तुमने फोन भी ना किया . . . कि अपनी बहन और भाँजे का हाल ही ले लेते।”
रसगुल्ले की प्लेट से एक रसगुल्ला उठाकर अपने मुँह में रखते हुए, सुभाष मज़ाकिया अंदाज़ में बोला , “नहीं दीदी, ऐसी कोई बात नहीं है। बस यूँ ही याद नहीं रहा, इसलिए फोन नहीं कर पाया, सॉरी दीदी!” सुभाष बात को टालने की ग़रज़ से बोला।
मालती देवी फिर उसी रौ में बोली, “आख़िर, अपनी जाति-बिरादरी का नाम प्रभाकर ने रौशन किया है। अब तक हमारी जाति में ऐसा मुक़ाम बहुत कम लोगों ने हासिल किया है। मुझे गर्व है अपने बेटे पर . . .!”
आख़िर, सुभाष से भी ना रहा गया। वो भी पहलू बदलते हुए बोला, “हम किस बात का घमंड करें दीदी। इस बात का कि हमारा भाँजे, प्रभाकर ने लॉ की परीक्षा टॉप क्लास में पास कर ली है। देखियेगा, हमारा यही प्रभाकर, जब प्रैक्टिस करने लगेगा; जब कोई अपनी जाति वाला ही अपनी कोई परेशानी लेकर जायेगा, तो वो कैसे कन्नी काटता है? वो, फ़ाइल पर बिना चढ़ावा रखे उसे छूएगा भी नहीं। फिर, किस बात का ग़ौरव . . . हमें क्यों ख़ुश होना चाहिए अपनी जाति पे? दीदी, प्रभाकर अब हमारा रहा ही कहाँ है? वो तो अब एक अलग दुनियाँ का होकर रह गया है, फिर, उसे किस लिए बधाई, और, शुभकामनाएँ दी जाएँ अपने ही लोगों का ख़ून चूसने के लिए। आम-आदमी, जब आदमी से बाबू बनता है, तो उसके, और उसके बाबूपन के बीच एक महीन रेखा खिंच जाती है, सीमा के इस पार आम आदमी होता है, और उस पार बाबू। आम-आदमी से बाबू बनते हुए उसे पता ही नहीं चलता, कि कब वो अपने साथ वालों को बहुत पीछे छोड़ आया है। सॉरी, दीदी, मैं प्रभाकर को बधाई नहीं दे सकता।”
अपने, सगे भाई सुभाष के मुँह से ऐसी बात सुनकर मालती देवी को शाॅक-सा लगा। छत पर घूमता हुआ हाईस्पीड पंखे की ठंडी हवा के बावजूद मालती देवी का पेशानी पसीने से तरबतर हो गया।
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