मशरूम

महेश कुमार केशरी  (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

“जजमान अपने इष्ट अपने माता-पिता को याद करके भगवान् विष्णु और आर्यमा देवता को स्मरण करते हुए अपने पित्तरों (माता-पिता) को उनकी प्रिय चीज़ें तर्पण कीजिए,” पुरोहित संस्कार संपन्न करवाते हुए बोला। 

माली को याद आ गई वो अप्रिय घटना। 

मालती का स्वर ऊँचा और ऊँचा होता चला गया था। भादों के शुरूआती दिन थे। 

गुंजन बाबू, सब्ज़ी की तरफ़ अनिच्छा से देखते हुए बोले, “बहू, अब रोज़-रोज़ सब्ज़ी में टिंडे, तोरई, नेनुआ मत बनाया करो। भिंडी, तोरई खा-खाकर मन ऊब गया है। किसी दिन मशरूम बना लो।”

मालती किचन से हाथ हिलाते हुए बोली, “आपका मुँह तो गज भर लंबा हो गया है। यहाँ साग-सब्ज़ी के पैसे नहीं जुट रहे हैं। और आपको मशरूम खाना है। ज़ुबान क़ाबू में रखिए।” उस टोन में ग़ुस्सा उपेक्षा और हिक़ारत का भाव था। 

“जजमान बोलिए विष्णु और आर्यमा देवता को क्या चढ़ाया जाए जो आपके पिता को भी पसंद हो?”

माली के मुँह से निकला, “मशरूम।”

“राम-राम! शुभ-शुभ बोलिए। पितृपक्ष का समय है। सात्विक भोजन बताइए।”

माली चाहता तो उस दिन विरोध कर सकता था। लेकिन वो घर में बेकार का हंगामा नहीं करना चाहता था। इसलिए मन-मसोस कर रह गया। उसको जवाब देना चाहिए था मालती की बातों का। कहना चाहिए था कि पिता अब बहुत कमज़ोर हो गए हैं। जवानी के दिनों में वो परिवार पालने के लिए अट्ठारह-अट्ठारह घंटे मज़दूरी करते थे। अपना पेट काट-काटकर माली को पढ़ाया-लिखाया था। सोचा जब बच्चे बड़े होंगे तो सुकून की ज़िन्दगी जिएँगे। अपने मन का बनवाएँगे और अपने मन का खाएँगे। 

उस दिन पूर्णमासी थी। गुंजन बाबू मालती से बोले, “बहू आज पूर्णमासी है। ये दिन बहुत शुभ रहता है। आज खीर बना लो।” 

मालती घरेलू काम-धाम करके पहले से ही बहुत परेशान थी। मालती का पारा चढ़ गया, “बोली घर में दूध नहीं आ रहा है। पुराना बकाया देना है। खीर कहाँ से बना दूँ। चुपचाप रोटी-सब्ज़ी खाइए। बच्चों को दूध नहीं मिल रहा है। इनको खीर खाना है। हुँह!” 

मालती की उपेक्षा ने नश्तर की तरह गुंजन बाबू के सीने पर वार किया था। जिसके ज़ख़्म से गुंजन बाबू ताऊम्र उबर ना सके। 

 

“जजमान सात्विक चीज़ का भोग लगाइए। बताइए क्या भोग लगाएँगें।”

माली की तंद्रा टूटी, “खीर, खीर बाबूजी को बहुत पसंद थी।”

माली ने मालती को खीर निकालने को कहा। 

इस बार माली ने देखा। चाँदी की कटोरी में खाँटी दूध से बनी खीर रखी थी। कसीदेकारी वाले कपड़े से सजाकर ढंँकी हुई। जिसमें काजू, किशमिश, अखरोट, बादाम, मेवा सब मिला था। कटोरी से निकालकर कौओं को पत्तों पर परोस दिया गया। कौए बड़े चाव से खाने लगे थे। मानों माली के पिता को दुआ दे रहे हों कि आप ना मरते तो हम लोगों को ऐसी स्वादिष्ट खीर खाने को कभी ना मिलती। 

♦ ♦ ♦

पितृपक्ष का संस्कार ख़त्म हो गया था। माली और मालती गया जी से लौट रहे थे। ट्रेन मिल गई थी। अपनी नियत सीट पर वो लोग बैठ गए थे। गया जी में श्राद्ध मेले के कारण ट्रेन में बहुत भीड़ चल रही थी। कुछ स्टेशनों पर भीड़ बढ़ी। लेकिन‌ फिर धीरे-धीरे भीड़ कम होने लगी। 

एक सास और बहू भी ट्रेन के उसी कंपार्टमेंट में सफ़र कर रहे थे। 

बातचीत का सिलसिला चल पड़ा। 

माली ने पूछा, “आप लोग कहाँ तक जाएँगे?” 

बहू ने उत्तर देते हुए पूछा, “जी सतारा तक और आप लोग?” 

माली ने बताया, “हमें अकोला तक जाना है।”

“इधर, कहाँ आए थे?” 

“गयाजी में श्राद्ध मेले में शामिल होने। अपने पिताजी का श्राद्ध करने; और, आप लोग।”

“हम लोग आए थे अपने रिश्तेदार से मिलने।”

“अच्छा।”

कुछ देर में दोनों परिवारों में अच्छा-ख़ासा हेल-मेल हो गया। घर-परिवार की बातें होने लगीं। घर में कौन-कौन हैं। आपके पति क्या करते हैं। आपके कितने बच्चे हैं। आप लोग मूलतः सतारा के ही हैं या कहीं और से आकर यहाँ बसे हैं। आपके परिवार में कितने लोग हैं। वग़ैरह-वग़ैरह। 

जो औरत माली और मालती के साथ अपनी सास के साथ सफ़र कर रही थी, उसकी सास को बार-बार टाॅयलेट जाना पड़ रहा था। बुढ़िया थोड़ी-थोड़ी देर में पानी भी बहू से माँग-माँग कर पी रही थी। एक-दो-बार के बाद बहू का धैर्य चूक गया। 

बहू ने टोका, “आप बार-बार पानी क्यों पीती हैं, जब आपको पता है बार-बार आपको टाॅयलेट जाना पड़ेगा। मैं आपकी बहू हूँ। आपकी नौकरानी नहीं। जो बार-बार आपको टाॅयलेट ले जाऊँ। अभी छत्तीस घंटे का सफ़र तय करना है। तब जाकर सतारा पहुँचेंगें; पानी कम पीजिए।” बहू ने सास को झिड़क दिया। 

♦ ♦ ♦

मालती तत्काल इस घटना को देखकर अतीत में कहीं खो गई। मालती की सास कई महीनों से बीमार थी। बिस्तर पर पड़ी रहती थी। सर्दियों के दिन थे। ठंड में पेशाब भी ज़्यादा लगता है। बीमारी की हालत में कभी-कभी बिस्तर पर पेशाब भी कर देती थी। 

बूढ़े तो बुढ़ापे में वैसे ही बच्चे हो जाते हैं। बूढ़ों का बच्चों से भी अधिक ख़्याल रखना पड़ता है। एक दिन की बात है, मालती कमरे में झाड़ू लगा रही थी। तभी उसका बेटा शुभम चिल्लाया, “माँ, दादी ने बिस्तर पर पेशाब कर दिया।” 

मालती सास के कमरे में दौड़ती हुई आई। आकर सास को जली-कटी सुनाने लगी, “ऐ बुढ़िया मुझसे नहीं होगा तेरा गू-मूत साफ़। लेटे-लेटे बिस्तर पर ही हग-मूत देती है। पेशाब जाने को होता है तो उठकर बाहर क्यों नहीं जाती। या कम-से-कम बोला दिया कर।”

बुढ़िया बिस्तर पर लेटे-लेटे ही बोली, “क्यों नहीं करेगी मेरा गू-मूत साफ। किया धरा लड़का तुमको पाल पोसकर दे दिया। और मुझपे हुक्म चलाती है। कल की आई लड़की१ मेरा पेशाब और गू-मूत साफ नहीं करेगी। मेरा तुझ पर अख्तियार है। जब माली छोटा था, तो मेरे बगल में ही सोता था। रात भर इसके मूत से बिस्तर गीला रहता था। मैं इसके मूत पर ही सोती थी। रात-रात भर मेरा दूध पीता था। और रात-रात भर मूतता रहता था। तब मैंने इसको कुछ नहीं कहा। रोज नियम से नहलाती-धुलाती थी। तेल लगाती थी। तीनों टाइम सुबह, दोपहर, शाम। क्या इसको इसी दिन के लिए पाल-पोसकर बड़ा किया था कि तेरी जली-कटी सुनूँ।” और फिर पलट कर बेटे को कहने लगी, “अरे, हीरा बोलता कुछ क्यों नहीं रे। जब ये मुझे ऐसा-वैसा कहती है। तेरे मुँह में ज़ुबान नहीं है, क्या? तेरे पिता भी ऐसे ही जली-कटी सुनते-सुनते इस दुनिया से विदा हो गए। बेचारे को कितना कष्ट सहना पड़ा। देखना एक दिन मैं भी इस घर से हमेशा-हमेशा के लिए चली जाऊँगी। तब तुम लोग रहना आराम से। तब तुमसे खाना-पीना नहीं माँगने आऊँगी। चली जाऊँगी तुम सबको छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए।”

माली क्या करता? घर में लड़ाई-झगड़े के डर से चुप हो जाता। 

एक दिन मालती ने बेइज़्ज़त करके सास को घर से धक्के मारकर भगा दिया था। माली की माँ अब वृद्धाश्रम में रहती थी। उस दिन माली बहुत रोया था। 

♦ ♦ ♦

मालती ने अब तक अपनी सहयात्री बहू से कोई बात नहीं कि थी। मालती को लगा कि उसको कुछ कहना चाहिए। लेकिन वो कुछ बोल ना सकी। उसको अपनी सास के साथ किए गए बुरे बर्ताव की याद आ रही थी। मालती को लग रहा था कि इन घटानाओं के माध्यम से वो फ़्लैशबैक में चली गई है। 

सहयात्री बहू से बोली, “आपको अपनी सासू माँ की इज़्ज़त करनी चाहिए। उनको ऐसे नहीं बोलना चाहिए।”

माली, मालती को देखकर मुस्कुरा रहा था। उसकी मुस्कुराहट में एक तरह की क्रूरता थी। उस मुस्कुराहट में पता नहीं कैसी तीक्ष्णता थी जो मालती को अन्दर तक बेधती चली गई। मानों माली की नज़र कह रही हो। तुमने तो अपनी सास की ख़ूब सेवा की थी—वृद्धाश्रम में छोड़कर। 

वाह री औरत! ख़ुद तो चुड़ैल है। लेकिन दूसरे को सीख दे रही है। हुँह . . . 

♦ ♦ ♦

माली और मालती को अकोला पहुँचे महीना भर हो गया था। 

एक दिन मालती बोली, “बहुत दिन हो गए आज मशरूम खाने का मन कर रहा है। ख़रीदकर लाओगे बनाऊँगी।” 

माली बेमन से बोला, “बना लो जो खाने का जी करे।”

“सुनो, “बाबूजी को मशरूम बहुत पसंद थी। उनको भेंट करेंगे। मतलब चढ़ाएँगें।”

माली के जी में आया कह दे—जीते जी ससुर को पूछा नहीं; मरने के बाद तस्वीर को भेंट चढ़ाया जा रहा है। देखो इस औरत का चरित्र। इसकी बेहयाई। दो मुँही साँप है, ये औरत . . . जीते जी पानी नहीं पूछती थी। और मरने के बाद मशरूम भेंट करना चाहती है . . . हुँह! 

माली का मुँह और मन दोनों घृणा से विकृत हो गए। 

♦ ♦ ♦

माँ को वृद्धाश्रम गए तीन महीने बीत गए थे। इस बीच एक दिन उसके पड़ोस में हो-हल्ला सुनाई पड़ा। माली दौड़कर बाहर आया। देखा बग़ल में चक्रेश की पत्नी मीनाक्षी अपनी सास का सामान ज़बरदस्ती बाहर कर रही है। वृद्धाश्रम भेजने की तैयारी चल रही थी। बुढ़िया विरोध कर रही थी। वो चक्रेश के साथ ही रहना चाहती थी। चक्रेश, मीनाक्षी और बच्चों के साथ। लेकिन मीनाक्षी बुढ़िया को घर से खदेड़ना चाहती थी। 

अचानक किसी ने फोन करके चक्रेश को बुला लिया था। चक्रेश घर आकर अपनी माँ का सामान अन्दर रख आया। मीनाक्षी को बहुत भला-बुरा कहा। जाते जाते-चक्रेश, माली को सुनाते हुए बोला, “दूसरों के घर की माओं को वृद्धाश्रम भेजा जाता होगा। यहाँ सब नामर्द नहीं बैठे हैं। हम अपने घर की औरतों को वश में रखना जानते हैं। नामर्द नहीं हैं, हम।”

♦ ♦ ♦

चक्रेश की कही बात से माली रात भर परेशान रहा। वो सब कुछ हो सकता था, लेकिन नामर्द नहीं। सारी रात माली की करवटें बदलते बीती। वो सो ही नहीं पा रहा था। 

सुबह-सुबह वो वृद्धाश्रम चला गया। अपनी माँ को लाने। मर्दानगी और नामर्दानगी की बात नहीं थी। दरअसल जब से माली की माँ वृद्धाश्रम गई थी, माली का मन दुःख से भरा रहता था। श्राद्ध कर्म के लिए गयाजी जाते हुए भी वो माँ के बारे में सोच रहा था . . . रोज़ की ज़रूरतों, खाने-पीने का इंतज़ाम। फिर बूढ़ी काया। पर-पेशाब लाने, ले-जाने के लिए भी तो कोई चाहिए। 

मालती ने बुढ़िया को देखा, तो माली से सीधे मुँह बात भी ना करने लगी। लेकिन माली को अब इन बातों से कोई मतलब ना था। पिता को वो पहले ही खो चुका था। माँ को वो किसी क़ीमत पर नहीं खोना चाहता था। आज फिर साल भर बीत गया था . . . पितृपक्ष का पहला दिन। 

सुबह उठकर उसने माँ से पूछा, “माँ तुम्हारे लिए खीर बना रहा हूँ, खाओगी?” 

बुढ़िया ने सिर हिलाया। आज बहुत दिनों बाद माली ने खीर बनाई थी। पतीले में खाँटी दूध डालकर जिसमें काजू, किशमिश, बादाम, अंजीर, मखाना सब मिला था। माली ने चाँदी की कटोरी में पतीले से खीर निकालकर चम्मच से माँ को खिलाया। 

बुढ़िया के मुँह से निकला, “जुग जुग जियो मेरे लाल! तुम्हारे वात्सल्य से मैं गदगद् हो गई . . . आज बहुत दिनोंं बाद इतनी स्वादिष्ट खीर खाई है। वो भी अपने बेटे के हाथों की।” 

थोड़ा रुककर बुढ़िया फिर बोली, “आज पितृपक्ष है। आज कोओं को खिलाने का दिन नहीं है। माँ-बाप को खिलाओ तो सीधे स्वर्ग मिलता है!” 

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