परिंदे की जात

01-10-2022

परिंदे की जात

महेश कुमार केशरी  (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

लाल्टू ने घर को आख़री बार निहारा। घर जैसे उसके सीने में किसी कील की तरह धँस गया था। उसने बहुत कोशिश की लेकिन, कील टस से मस ना हुआ। उसने सामने खुले मैदान में नज़र दौड़ाई। सामने बड़े-बड़े पहाड़ ख़ूबसूरत वादियाँ। कौन इस जन्नत को छोड़ कर जाने की बात भी सोचता है? लेकिन वो अपने बूढ़े बाप और अपने बच्चों का चेहरा याद करता है तो ये घाटी अब उसे मुर्दों का टीला ही जान पड़ती है। इधर घाटी में जब से मज़दूरों पर हमले बढ़े हैं। उसके पिताजी और उसके बच्चों का हमेशा फोन आता रहता है कि कहीं कुछ . . .। उसके बूढ़े पिता कोई बुरी घटना घाटी के बारे में सुनते नहीं कि उसका मोबाइल घनघना उठता है। चिंता की लकीरें लाल्टू के चेहरे पर और घनी हो जातीं हैं। 

बूढ़ा असगर जाने कब से आकर लाल्टू के बग़ल में खड़ा हो गया था। उसकी नज़र अचानक बूढ़े असगर पर पड़ी। 

लाल्टू झेंपता हुआ बोला, ”अरे चचा आइये बैठिये . . .” 

“तुमने, तो जाने का इरादा कर ही लिया है। तो मैं क्या कहूँ . . .? लो यह पश्मीना शॉल है . . . । रास्ते में ठंड लगेगी तो ओढ़ लेना।” असगर चचा ने तह किये हुए साल को पन्नी से निकाला और लाल्टू के कंँधे पर डाल दिया। 

इस अपनत्व की गर्मी के रेशे ने एक बार फिर, से लाल्टू की आँखें नम कर दीं। 

असगर चचा ने धीरे-से उसके कँधे दबाये। और हाथ से उसके कँधे को बहुत देर तक सहलाते रहे। 

असगर चचा को कहीं ये एहसास हुआ कि ज़्यादा देर तक वो इस तरह रहे तो उनकी भी आँखें भीगने लगेंगी। 

उन्होंने विषयांतर किया, और बोले, “चाय पियोगे . . .?” 

लाल्टू ने हाँ में सिर हिलाया। 

बूढ़े असगर ने नदीम को आवाज़ लगाई, “नदीम ज़रा दो कप चाय दे जाना।” थोड़ी देर में नदीम दो प्यालों में गर्मा-गर्म चाय लेकर आ गया। 

चाय पीते हुए बूढ़ा असगर बोला, “ठीक, है अब तुम भी क्या कर सकते हो? जब यहाँ लोग डर के साये में जीने को मजबूर हैं। वहाँ तुम्हारे वालिद और बच्चे परेशान हैं। यहाँ क्या है? फुचके अब ना बिकेंगे। तो चाय बेचने लगूँगा। आख़िर कहीं भी रहकर कमाया-खाया जा सकता है। तुम जहाँ रहो ख़ुश रहो। अपने वालिद और अपने बच्चों को देखो। ज़माना बहुत ख़राब आ गया। पहले लोग इंसानियत और क़ौम के लिए जान दे देते थे। लेकिन, अब इन नालायकों को जिहाद और आतंकवाद के अलावे कुछ नहीं सूझता। जिहाद बुराई को ख़त्म करने के लिए किया जाता है। बुरा बनने के लिए नहीं। इस्लाम में कहीं नहीं लिखा है कि बेगुनाहों, और मज़लूमों को क़त्ल करो। ये सब वही लड़के हैं जिन्हें धर्म के नाम पर उकसाया जाता है। और सीमा पार बैठे हुक्मरान इनसे खेलते हैं।” 

बहुत देर से चुप बैठा नदीम भी आख़िरकार चुप ना रह सका। बोला, “तमिलनाडु में एक कंपनी ने तो एक ऐसा विज्ञापन निकाला है जिसमें लिखा है कि वो नौकरियाँ केवल हिंदुओं को देगा। मुसलमानों को नहीं! 

“आख़िर जो हो रहा है। एकतरफ़ा तो नहीं हो रहा है ना।” 

अचानक से चचा के शब्दों में अफ़सोस उतर आया। वो नदीम को घूरते हुए बोले, “आज सालों पहले लाल्टू यहाँ आया था। और पता नहीं कितने मज़दूर यहाँ काम की तलाश में आयें होंगे। ये देश जैसे तुम्हारा है वैसे लाल्टू का भी है। कोई भी कहीं भी देश के किसी भी हिस्से में जाकर मज़दूरी कर सकता है। कमाने-खाने का हक़ सबको है। लाल्टू आज भी मुझे अपने वालिद की तरह ही मानता है। गोलगप्पे मैं बेलता हूँ। छानता वो है। रेड़ी मैं लगता हूँ। रेड़ी धकेलता वो है। मैंने कभी तुममें और लाल्टू में अंतर नहीं किया। बेचारा हर महीने जो कमाता है, अपने घर भेज देता है। साल-छह महीने में वो कभी घर जाता है तो अपने बूढ़े बाप और बाल-बच्चों से मिलने। मेरा ख़ुदा गवाह है कि मैंने कभी इसे दूसरी किसी नज़र से देखा हो। इस ढंग की हरकतें सियासतदाँ करें। उनको शोभा देता होगा। हम तो इंसान हैं ऐसी गंदी हरकतें हमें शोभा नहीं देतीं! हम तो मिट्टी के लोग हैं। और हमारी ज़रूरतें रोटी पर आकर सिमट जातीं हैं। रोटी के आगे हम सोच ही नहीं पाते। हिंदू-मुसलमान भरे-पेट वालों लोगों के लिए होता है। ख़ाली पेट वाले रोटी के पीछे दौड़ते हुए अपनी उम्र गँवा देते हैं। इसलिए नदीम दुनियाँ में आये हो तो हमेशा नेकी करने की सोच रखो। बदी से कुछ नहीं मिलता बेटा। बेकार की अफ़वाहों पर ध्यान मत दो बेटा। इस तरह की अफ़वाहों पर कान देने से अपना ही नुक़्सान है, नदीम। ऐसी अफ़वाहें घरों में रौशनी नहीं करतीं। ना ही शांति के लिये क़िंदीलें जलातीं हैं। बल्कि पूरे घर को आग लगा देतीं हैं। मैं उन नौजवानों से भी कहना चाहता हूँ। जो इस तरह के क़त्लो-ग़ारत में यक़ीन रखते हैं। बेटा उनका कुछ नहीं जायेगा। लेकिन तब तक हमारा सब कुछ जल जायेगा!” 

बाहर की खिली हुई धूप में कुछ कबूतर उतर आये थे। बूढ़ा असगर गेहूँ के कुछ दाने कोठरी से निकाल लाया। और, उनकी तरफ़ फेंकने लगा। ढेर सारे कबूतर वहाँ दाना चुगने लगे। 

बूढ़ा असगर, उनकी ओर ऊँगली दिखाते हुए लाल्टू और नदीम से बोला, “देखो ये हम से बहुत बेहतर हैं। अलग-अलग रंगों के होने के बावजूद ये एक साथ बैठकर दाना चुग रहे हैं। ये बहुत बुद्धिमान नहीं हैं। फिर, भी ये आपस में कभी नहीं लड़ते। लेकिन, आदमी इतना बुद्धिमान होने के बावजूद भी जातियों और मज़हबों में बँटा हुआ है। इन कबूतरों से आदमी को बहुत सीखने की ज़रूरत है।” 

लाल्टू ने नज़र दौड़ाई दोपहर धीरे-धीरे सुरमई शाम में तब्दील होने लगी थी। उसने एक बार रेड़ी को छुआ। फिर, उन बर्तनों पर सरसरी निगाह दौड़ाई। बिस्तर को निहारा। ये सब वो आख़िरी बार निहार रहा था। पिछले दस-बारह सालों से वो कश्मीर के इस हिस्से में रेड़ी लगाता आ रहा था। सब छूटा जा रहा था! 

उसकी बस किनारे आकर लगी। लाल्टू चलने को हुआ। 

बूढ़ा असगर दौड़कर बस तक आया। उसने लाल्टू को सीने से लगा लिया। लाल्टू और बूढ़ा दोनों रोने लगे। 

बूढ़ा असगर बोला, “अपना ख़्याल रखना! कभी हमारी याद आये और हालात ठीक हो जायें तो चले आना।” 

“आप भी . . . अपना ख़्याल रखना . . . बाबा!” झेंपता हुए वो बस की सीट पर बैठ गया। उसने बैग से पश्मीना शाॅल निकाला और ओढ़ लिया। सुरमई शाम धीरे-धीरे रात में बदल गई। 

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