दुःख बुनना चाहिए . . .
महेश कुमार केशरी
सोचता हूँ क्या
बुनना चाहिए . . .?
फिर, ख़्याल आता है कि दुःख बुनना चाहिए
तकलीफ़ बुननी चाहिए
दुःख-तकलीफ़ में आदमी एक हो जाता है
सुख में लोग बात
नहीं करते
सुख अकेले का होता है
पट्टीदारों से सुख नहीं बाँटते हैं, लोग
इस तरह पट्टीदारों से एक लंबे
समय तक मौन रहता है
एक लँबा मौन जिसमें
सालों बात नहीं होती
लेकिन, दुःख में लोग
एक हो जाते हैं
दर असल दुःख पुल की तरह होता है
जो दुर्गम दुःखों के माध्यम से आदमी
को जोड़ता है!
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