देहरी के भीतर स्त्रियाँ 

15-09-2025

देहरी के भीतर स्त्रियाँ 

महेश कुमार केशरी  (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

देहरी से निकलना आसान 
नहीं होता स्त्रियों के लिए 
देहरी—देहरी नहीं होती 
इसमें उनको बताए जाते हैं 
स्त्री होने के मायने 
उनको उनकी हद 
हद में रहकर नपे-तुले शब्दों में
जवाब देना है . . ।
 
बाहर निकलते समय रखनी है 
पर्देदारी 
बहुत बेहतर है अगर
ज़्यादा हँसो बोलो नहीं 
मर्दों से 
बस काम-से-काम रखना चाहिए 
स्त्रियों को 
साँझ के बाद नहीं निकालने हैं क़दम उनको 
घर के बाहर सीमाएँ 
बहुत जल्दी समझाई जाने लगती
हैं, उनको 
 
एक देहरी खींची होती है 
उसमें से समय से निकलना है और 
वापस लौटना भी है समय से 
 
जैसे लगता है समय की सलीब 
पर टाँगी दी गईं हैं, ये स्त्रियाँ 
स्त्रियाँ आड़े-तिरछे नहीं चल
सकतीं 
उनको चलना है
समानांतर रेखाओं की 
सीध में 
 
सब कुछ तय किया गया है 
उनके लिए 
समय के 
भीतर खींची गयी रेखा में 
 
ये जो लड़कियाँ हैं 
मुझे लगता है एक वृत्त की तरह चक्कर 
लगा रहीं हैं 
नाच रहीं हैं किसी वलय में 
सदियों से 
चलते रहना उनकी नियति है 
इस वृत्ताकार घेरे में
बदलता कुछ भी नहीं है 
कुछ समय बदलने पर बदलतीं हैं 
उनकी कक्षाएँ 
लेकिन उनको टँगे रहना है उसी 
वृत्त के छल्ले पर और 
लगाते रहने हैं देहरी के चक्कर! 

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