बेबसी
महेश कुमार केशरीमंदिर से लौटते वक़्त केतकी को उसकी सहेली सुलोचना रास्ते में मिल गई थी। दोनों बहुत दिनों के बाद मिली थीं। दोनों में बातें होने लगीं।
हालचाल पूछने के बाद केतकी ने सुलोचना से पूछा, “और, बता, तेरी दोनों बेटियाँ कैसी हैं? स्कूल जा रहीं हैं या नहीं?”
सुलोचना हँसते हुए ही बोली, “हाँ जा रहीं हैं। एक छठी में पढ़ रही है। दूसरी आठवीं में पढ़ रही है।”
तभी केतकी की नज़र सुलोचना की बाँहों पर चली गई। जहाँ नीले-स्याह धब्बे उभर आये थे। केतकी से रहा ना गया तो उसकी बाँहों की तरफ़ इशारा करते हुए कौतूहलवश पूछा लिया, “सुलोचना, ये तेरी बाँहों पर नीले धब्बे कैसे पड़ गये हैं? देखो तो, गोरी, बाँहें कैसी तो काली पड़ गयी हैं।”
केतकी के अपनत्व और मिठास भरे व्यवहार को सुनकर सुलोचना की आँखें भर आईं। माँ, ज़िन्दा थीं तो हाल-चाल लेतीं थीं। पिता को छोड़कर अब तो कोई हाल-चाल लेना वाला भी नहीं रहा!
बाँहों पर के स्याह नीले धब्बे बादल बनकर केतकी की आँखों से बरसने लगे, “अरे, छोड़ो भी अब तो ये रोज़-रोज़ की बात हो गई है। कर्मा रोज़ दारू पीकर आता है। और, मुझे रोज़ मारता-पीटता है। बच्चे छोटे-छोटे हैं, अभी, नहीं तो बच्चों को लेकर अपने मायके अपने पिता के पास चली जाती। क्या करूँ बहुत मजबूर हू़ँ।”
दु:ख की एक महीन रेखा सलवटों से भरे सुलोचना के चेहरे पर उभर आयी थीं। जहाँ सुख कभी उगा ही नहीं था!