अंतिम बार

01-08-2022

अंतिम बार

महेश कुमार केशरी  (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“बाबू, ई प्योर शीशम के लकड़ी हौ। चमक नहीं देखत हौ, और हल्का कितना हौ लईकन सब पचासों साल बैठी तबो कुछ ना होई,” सीताराम बढ़ई की कही ये बातें जैसे लगती हैं कल की ही बात हो, लेकिन, इस बात को सुने अवधेश को सालों हो गये। 

अवधेश ने कमरे को एक बार फिर निहारा। क़रीने से सजे हुए बेंच और टेबल, जिस पर जगह-जगह धूल जम गई थी। सामने लगी ट्यूबलाइट उसको जैसे मुँह चिढ़ा रही थी। वो अपने अवचेतन में कहीं गहरा धँसता चला गया। आज से दस साल पहले जब उसने ये कोचिंग इंस्टीटयूट शुरू किया था। ये सोचकर कि जो तकलीफ़ उसे गाँव में उठानी पड़ी है, वो तकलीफ़ आसपास के लोगों को नहीं उठानी पड़े। वो, शिक्षक ही बनेगा। कितना अच्छा तो पेशा है। समाज में लोग कितना सम्मान देते हैं। सब लोग प्रणाम सर . . . प्रणाम सर कहते नहीं थकते, और, उसे शुरू से किताबों से कितना लगाव रहा है। ख़ुद भी पढ़ो और दूसरे लोगों को भी शिक्षित करो, लेकिन, इधर कोरोना के कारण पिछले एक-सवा साल से कोचिंग बंद था। सरकार सब कुछ खोलने की अनुमति देती है, लेकिन कोचिंग इंस्टीटयूट पर जैसे उसे पाला मार जाता है। जिम, रेडिमेड, शॉपिंग मॉल, बस, ट्रेन, हवाई जहाज़ सब खुल गये हैं, लेकिन, सरकार को पढ़ाई से ही चिढ़ है। कोचिंग वाले टैक्स नहीं देते ना! इसलिए भी सरकार इन लोगों को कोचिंग इंस्टीटयूट खोलने की अनुमति नहीं देती। अगर वो भी कोई जिम या शॉपिंग मॉल चलाता तो क्या सरकार उसको रोक लेती? नहीं बिल्कुल नहीं! 

वो बहुत कोशिश करता रहा कि वो अपना कोचिंग इंस्टीटयूट बंद ना करे, लेकिन, घर में छोट-छोटे बच्चे हैं। उनके खाने-पीने के लाले पड़ गये हैं। पिताजी को डाॅक्टर को दिखाना है। दिसंबर आधा गुज़र गया है। माँ का स्वेटर भी लेना है। ठंढ़ से काँपती रहती है। आख़िर बूढ़ी काया में ताक़त ही कितनी होती है। 

स्वेटर जगह-जगह से फट गया है, और स्वेटर के कुछ हिस्से तो छीजकर आर-पार भी दिखने लगे हैं। कई दिनों से माँ कह रही है। घर के अंदर तो पहन सकती हूँ, लेकिन, बाहर निकलते मुझे शर्म आती है। आख़िर, लोग क्या कहेंगे? एक शिक्षक की माँ फटा हुआ स्वेटर पहने हुए है! रमा ने भी कई बार शाॅल के लिए तगादा कर दिया है। कहती है आँगनबाड़ी जाते हुए ठंढ़ लगती है। अब रमा को शाॅल भी एक दो दिन में ख़रीदकर देता हूँ। आख़िर रमा की आँगनबाड़ी वाली नौकरी ना होती तो आज वे लोग कहीं भीख माँग रहे होते। उसको मिलने वाले छह हज़ार रुपये से ही तो घर अब तक चल रहा है। नहीं तो इस आपदा काल में कौन किसकी मदद करता है? सबसे ज़रूरी काम है पिताजी को डाॅक्टर को दिखाना। उनकी खाँसी रुकती ही नहीं। आख़िर, कितने दिनों तक मेडिकल से लेकर सिरप पिलाया जाये। सारी कंपनियों के सिरप एक-एक करके देख लिए। जितने रुपये सिरप और गोलियों पर ख़र्च किये। उतने में तो किसी अच्छे डाॅक्टर को दिखला देते, लेकिन, डाॅक्टर भी पाँच सौ से कम में नहीं मानेगा। कोरोना के समय में एक तो डाॅक्टर सामने से देखते नहीं। ऑनलाइन दिखलाना है तो दिखलाओ नहीं तो जै राम जी की। 

उसने बेंच को छुआ तो धूल के साथ-साथ जैसे उसके हाथ में अतीत के खुरचन भी आ गये। टीचर्स डे और वसंत पंचमी पर कितना सजाते थे छात्र इस इंस्टीटयूट को। कैसा लकदक करता था यही इंस्टीटयूट छात्र-छात्राओं के हँसी ठहाकों से। 

अवधेश को कमरे के एक-एक चीज़ से प्रेम था। उसने इंटीरियर डिज़ाइनर से अपने इंस्टीटयूट को सजवाया था। गुलाबी पेंट, बढ़िया कार्पेट, अच्छी कुर्सी और मेज़। शानदार ब्लैकबोर्ड, टेबल के ऊपर सजे भाँति-भाँति के पेन। कैसे वो सफ़ेद क़मीज़ और काली पैंट पहन कर नियम से सुबह छह बजे ही नाश्ता-पानी करके चल देता था। फिर, देर रात गये ही घर लौटता। उसने नीचे ऊपर सब मिलाकर तीन-चार कमरे ले रखे थे। दो तीन और लड़कों को भी रख लिया था। पहले काम के घंटे बढ़ते गये। उसके अंदर एक जूनून सा छाने लगा। फिर, छात्रों की बढ़ती संख्या को देखकर उसने रूम बढ़ा दिये। फिर, टीचर भी बढ़ाने पड़े। मिला-जुलाकर साठ सत्तर हज़ार रुपये महीने में वो कमा ही लेता था। फिर, धीरे-धीरे नई तकनीक आने से उसने कुछ कम्प्यूटर भी ख़रीद लिये और भी कई कमरे किराये पर ले लिये थे। और स्टाफ़ बढ़ाया। ख़ूब मेहनत करने लगा। वो अपने साथ-साथ और लोगों को भी रोज़गार दे सकता है। ये सोचकर ही उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था, और हमेशा उसे इस बात की ख़ुशी रही। सब लोग हँसी ख़ुशी से जी रहे थे। तभी कोरोना ने दस्तक दी और सबकुछ जहाँ का तहाँ जमकर रह गया। रोज़ सड़कों पर दौड़ने वाली उसकी स्कूटी घर में एक किनारे खड़ी हो गई। कभी-कभार कोई सामान लाने जाना होता तो, स्कूटी के भाग खुलते और वो रोड़ पर दौड़ती। नियमित आनेवाले टीचर्स अब दिखने बंद हो गये। पहले उसने औने-पौने दाम में कम्प्यूटर बेचे। शुरूआती दौर में तो तीन-चार महीने का लंबा लाॅकडाउन लगा। अचानक से आने वाले पैसे आने बंद हो गये। ख़र्च ज्यों-का-त्यों। बहुत बचत करने की आदत शुरू से नहीं रही। पैसा आता था तो पता नहीं चलता था। कितना भी ख़र्च कर लो। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था, लेकिन, अचानक से पैसे आने बंद होने से दिमाग़ जैसे सुन्न पड़ने लगा। ज़रूरी चीज़ों को तो नहीं टाला जा सकता था, लेकिन, ग़ैर ज़रूरी चीज़ों पर सख़्त पाबंदी लगा दी गई। चाऊमिन, पिज़्ज़ा मोमोज़ सब बंद। 

फिर, इंस्टीटयूट के मकान मालिक का तगादा बढ़ने लगा। नीचे के अतिरिक्त लिए गये कमरे को ग़ैर ज़रूरी समझकर छोड़ दिया गया। ये सोचकर कि पता नहीं कितना लंबा लाॅकडाउन चलेगा, और हर महीने का किराया भी चढ़ता जायेगा। सारे-के सारे कम्प्यूटर पहले ही बिक चुके थे। कमरे वैसे भी ख़ाली ही थे। सारे फ़र्नीचर को दो कमरों में समेटा गया, और कमरों की चाभी साल भर पहले ही मकान मालिक को सौंप दी गई। ये सोचकर कि आज नहीं तो कल जब सब कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा तो फिर, से कमरे को किराये पर ले लिया जायेगा। लेकिन, जब दूसरी लहर आयी और फिर, डेढ़ दो महीने का लाॅकडाउन लगा, तो रमा जैसे बिफरती हुई बोली, “क्या, कोचिंग इंस्टीटयूट के अलावा दूसरा कोई काम नहीं है? पेपर बेचो, सब्ज़ी बेचो, फल बेचो कुछ भी करो। लेकिन, अब घर की हालत मुझसे देखी नहीं जाती, और मेरी आँगनबाड़ी की कमाई से कुछ होने जाने वाला नहीं है। वो ऊँट के मुँह में जीरा का फ़ौरन जैसा साबित हो रहा है। तुम जल्दी कुछ करो। नहीं तो मैं बच्चों को लेकर अपने मायके चली जाऊँगी।” और यही सोचकर अवधेश ने ये फ़ैसला किया था, कि अब और इंतज़ार करना मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है। हो सकता है सालों कोरोना ख़त्म ना हो। तब तो सालों उसका इंस्टीटयूट बंद रहेगा। रमा ठीक कहती है। मुझे अपना इंस्टीटयूट बंद करके कोई और काम करना चाहिए। नहीं तो घर कैसे चलेगा? और यही सोचकर उसने एक ज़रूरतमंद संस्था को बहुत कम क़ीमत पर अपना फर्नीचर बेचने का फ़ैसला किया था। 

“भैया, ऑटोवाला आ गया है, सामान लेने,” रघुवीर ने टोका तो अवधेश अतीत के नर्म बिस्तर से हक़ीक़त की ठोस ज़मीन पर गिरा। 

“हुँ . . . हाँ . . . कौन रघुवीर अच्छा ऑटोवाला आ गया। चलो अच्छा है।” 

अवधेश के भीतर कुछ पिघला, कार्पेट, दीवार, टेबल या छत या कि दस साल का सुहाना सफ़र और उसकी आँखें भींगनें लगी। उसने आख़िरी बार कमरे को ग़ौर से निहारा। लगा जैसे सब कुछ छूटा जा रहा है, और वो किसी भी क़ीमत पर उसे नहीं छोड़ना चाहता। 

रघुवीर ने पूछा, “क्या हुआ भ‍इया . . .?” 

लेकिन, अवधेश, रघुवीर की बातों का कोई जवाब नहीं दे सका। 

बस भर्राये गले से बोला, “कुछ नहीं रघुवीर . . . ” 

शाम का धुँधलका गहराने लगा था। उसे लगा कमरे को पलटकर अंतिम बार देख ले। लेकिन, उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। धीरे-धीरे नीम अँधेरे में वो सीढ़ियों से नीचे उतर गया। 

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