सावन की ऐसी विदाई 

01-10-2022

सावन की ऐसी विदाई 

महेश कुमार केशरी  (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

ददा के प्राण अटके हुए थे। निम्मो दीदी के आने तक शायद यमराज भी उन्हें अपने साथ ले जाने को तैयार ना थे। निम्मो दीदी या बुआजी ज़्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं थीं। लेकिन अपने हक़ की बात बख़ूबी जानती समझतीं थीं। फूफा ने निम्मो बुआ को सालों पहले छोड़ दिया था। लेकिन ददा को पता नहीं क्यों ये लगता कि सारी ग़लती निम्मो बुआ की है। निम्मो बुआ आख़िर थोड़ा सा दब जातीं तो क्या होता? लेकिन अनपढ़ होने के बाद भी निम्मो बुआ को सही–ग़लत की पहचान थी। क्योंकि उन्हें पता था कि वो ग़लत नहीं हैं तो वो क्यों दबें? 

हालाँकि, ददा को अपने आख़िरी समय से कुछ पहले ये भान हो गया था। जब मेरे अपने दोनों बड़े भाइयों ने अपनी-अपनी बीबियों के कहने में आकर ददा को दाना-पानी देना बंद कर दिया था। आख़िरी के कुछ साल हम दोनों बहनों ने ही मिलकर ददा की सेवा-सुश्रूषा की थी। तभी ददा को अपनी ग़लती का एहसास हुआ था। और उनकी आँखें खुली थीं। 

दरवाज़े पर दस्तक हुई, निम्मो बुआ आँगन से दौड़ती हुई आयीं। और ददा के गले से लगकर रोने लगीं, “भ‍इया पहले ख़बर क्यों ना भिजवायी। नहीं तो इतनी देर नहीं होती। कुछ तुम्हारी सेवा कर लेती। आजकल तो मोबाइल का ज़माना है। बस एक फोन कर दिया होता तो मैं, दौड़ी चली आती। भाई से आख़िर बिगाड़ कैसा? ख़ून के रिश्ते भी भला कभी ख़त्म होते हैं क्या?” 

ददा के फँसे कंठ से जैसे आवाज़ फुसफुसाई। उनकी आवाज़ बहुत ही धीमी थी, “छुटकी बस तेरा ही इंतज़ार था। बेटा तेरा फ़ैसला ही सही था। देख आज मरणासन्न हूँ। लेकिन, बेटों ने मेरी कोई बात ना पूछी। गंगाजली डालने भी मेरी दोनों बेटियाँ और मेरी निम्मो ही आई। माँ जब ज़िन्दा थी तो मुझसे कहती थीं। ‘लालीराम मेरी बिटिया मेरे कलेजे का टुकड़ा है। इसको मेरे धन-सम्पत्ति का आधा हिस्सा दे देना’। बाद में सोचा कि सारी सम्पत्ति अपने बेटों के नाम कर दूँ। लेकिन दाढ़ीजार दोनों-के-दोनों नालायक़ निकले। देख तू, और मेरी दोनों बेटियाँ आख़िरी वक़्त में मुझे विदा करने आई।” 

उन्होंने लिहाफ़ के नीचे से काग़ज़ की एक दस्तावेज़ निकाली और निम्मो की तरफ़ बढ़ाते हुए बोले, “निम्मो सारी जायदाद मैंने तुम तीनों के नाम से बराबर-बराबर बाँट दी है। मेरी आज से दो-नहीं तीन बेटियाँ हैं। रागदरबारी सचमुच में काहिल और बेवकूफ़ आदमी था। जो तुझ जैसी पत्नी की क़द्र ना कर सका। तेरा फ़ैसला ही सही था। उस नालायक़ को तजकर तूने ठीक ही किया। तेरे साथ रोहन की ज़िन्दगी भी उसने ख़राब कर दी। ख़ैर, तू चिंता मत कर ये कोठी तेरी है। तेरे बाद, तेरे बेटे और उसकी बहू की होगी। बाग़-बग़ीचे और खेत-खलिहान सुमन और चँदा को बराबर-बराबर हिस्सों में बाँट दिया है। ताकि बाद में तुम लोगों को कोई ग़लतफ़हमी ना रहे। बेटों को मैंने कुछ नहीं दिया है। अपना कमाकर खाएँगे। बेटियों का कहीं आसरा नहीं होता। इसलिये तुम लोगों को दिया है। बेटे नालायक़ निकले। क्या करू़ँ? धीरे-धीरे ददा की आँखें बँद होने लगीं थीं। लेकिन ददा के चेहरे एक सुकून भरी मुस्कुराहट थी। अपना फर्ज़ पूरा कर लेने की। 

निम्मो को अपने फ़ैसले पर जहाँ फ़ख़्र हो रहा था। वहीं गीली आँखों से भाई को विदा कर रही थी। आज सावन की पूर्णमासी थी। और रक्षाबंधन का त्योहार भी। अजीब संयोग था। अंदर और बाहर ज़ोरों की मूसलाधार बारिश हो रही थी। सावन की आज ये अनोखी विदाई हो रही थी। 

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