ये सदी का मरना है

15-02-2025

ये सदी का मरना है

महेश कुमार केशरी  (अंक: 271, फरवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

आते-रहना! 
तुम मुझे भूल तो नहीं जाओगे! 
तुम से अब कब मुलाक़ात होगी! 
फोन ज़रूर करना 
मुझे लगता है, हर भाषा में जब इन शब्दों को लोग 
बोलते होंगे, तो 
अंतस पुलकित हो जाता होगा! 
शायद ये शब्द पुल की तरह हैं! 
अनायास ही बाँध लेते हैं 
तब फूल खिलते होंगे 
सूर्यास्त होता होगा 
या शायद सूर्योदय 
 
अपने समय से क़रीब तीन दशक 
पहले तक रहते थे ऐसे लोग
जो खटिया बिछा देते थे 
मेहमानों के आने पर 
 
हाल-चाल लिया करते थे 
घर-परिवार 
का 
गुड़-पानी, चूड़ा-मूढ़ी का दौर 
था वो 
 
वो दौर था, मोढ़े पर बैठने का 
मिट्टी के आँगन होते थे 
तब बैठक में सोफ़ा-सेट
नहीं होता था . . .
 
तब एक रुपये के 
बड़े-बड़े सिक्कों की एक माला 
पहने आती थी एक देहातन 
औरत, दातून बेचने 
 
जाते समय कसार बाँध देते थे
रास्ते में खाने के लिए . . .
या बतौर नेग या तोहफ़ा 
 
क़रीब तीन दशक 
पहले तक होते थे 
ऐसे लोग . . .
पता नहीं हाल-चाल 
जानने वाले और गुड़ पानी 
देने वाले ऐसे लोग ना जाने 
किस खोह में बिला गये! 
 
अब, मेहमानों के आने पर लोग 
बहाने बनाते हैं 
कि नहीं अभी हम शादी में जाने वाले हैं। 
या हमारे भतीजे का मुँडन है 
दिल्ली रहेंगे उस समय
 
वो साफ़-साफ़ नहीं कहते 
कि तुम मत आओ! 
इशारों में कहते हैं 
सीधे-साधे लोग सच मान 
लेते हैं! 
हाल-चाल जानने वाले और
गुड़-पानी पूछने वाले लोग अब कम होते जा रहे हैं! 

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