मज़दूरी

महेश कुमार केशरी  (अंक: 215, अक्टूबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

रोज़ की तरह अनिल आज भी होटल में दिनेश के साथ, चाय पीने के लिए आया हुआ था। वो, चाय पी ही रहे थे, कि एक अधेड़ उम्र की दंपती होटल में बारिश से बचने के लिए उनके टेबल के बग़ल में आकर बैठ गई। वो, लोग काफ़ी संपन्न व्यक्ति लग रहे थें। पत्नी ने क़ीमती साड़ी, गले में महँगा सोने का हार, पायल, बिछुवे, सोने की अँगूठी, पहन रखी थी। पति ने भी क़ीमती कोट, क़ीमती पैंट, चमचमाते हुए जूते, पहन रखे थे। 

बाहर, मूसलाधार बारिश हो रही थी, जो, लग नहीं रहा था, कि थोड़ी देर में ख़त्म होगी।

अनिल ने ग़ौर किया कि जो औरत उनके बग़ल वाले टेबल पर बैठी है, वो थोड़ा लँगड़ा-लँगड़ा कर चल रही है। शायद, उसके पैर में कुछ ख़राबी है।

थोड़ी देर में जो दंपती, टेबल पर बैठी थी। उनमें से पत्नी अपने पति से चाय की चुस्की लेते हुए बोली, “एक, बात कहूँ, लगता है, मेरी सैंडल, टूट गई है। होटल के बाहर में एक मोची बैठा हुआ है। क्या मैं, अपनी सैंडल उससे सिलवा लूँ?” 

पति, बोला, “थोड़ी, देर, में बारिश, ख़त्म हो जायेगी, चलकर किसी मॉल, से नयी सैंडल ले लेना।” 

पत्नी, बोली, “लेकिन, चलकर गाड़ी तक कैसे जाऊँगी . . .? मैं एक क़दम भी चलकर नहीं जा सकती।” 

पति, विवश होकर बोला, “ठीक, है, जाओ।” 

पत्नी, लंँगड़ाते हुए, बाहर, सैंडल लेकर चली गई। 

थोड़ी देर में पति से आकर बोली, “लाइये दस, रुपये का एक नोट दीजिये, सैंडल बन गया है।” 

पति ने जेब से निकाल कर दस रुपये का एक नोट पत्नी की ओर बढ़ा दिया। 

थोड़ी देरी में, पत्नी वापस आ गई, फिर, वो अपने पति से बोली, “मोची सैंडल सिलाई के माँग तो दस रुपये रहा है, लेकिन मैं पाँच रुपए से ज़्यादा नहीं दूँगी। लाओ, पाँच का एक सिक्का दो, दस का नोट दूँगी, तो वो दस रुपये पूरे ही रख लेगा।” 

पति ने जेब से पाँच का एक सिक्का निकाल कर पत्नी की ओर, बढ़ा दिया।

पत्नी, वापस मोची को पाँच रुपये देने चली गई। 

अनिल और दिनेश होटल से चाय पीकर, बाहर निकल गये थे, और अनिल, दिनेश से चलते-चलते बोला, “इस महँगाई के ज़माने में यदि, किसी ग़रीब-मज़दूर को हम पाँच रुपये की जगह दस रुपये दे देंगें तो क्या हो जायेगा? . . . कैसे-कैसे कांँइयाँ लोग हैं . . . इस ज़माने में . . .! जो मज़दूर की वाजिब मज़दूरी भी नहीं देना चाहते। आख़िर, उनका भी तो घर होता है, उनके भी बाल-बच्चे होते हैं।”

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