भिखारी का ऋण

01-01-2022

भिखारी का ऋण

सुनील कुमार शर्मा  (अंक: 196, जनवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

बस अड्डे पर भीख माँग रहे एक भिखारी को पैसे देने के लिए मैंने जैसे ही जेब मे हाथ डाला; हाथ जेब से आर-पार हो गया। और बटुआ जेब से ग़ायब था। मैं एक दम से घबरा गया; क्योंकि उस समय चलने वाली आख़िरी बस, बस अड्डे पर आ चुकी थी। मेरे पास किराये के पैसे भी नहीं बचे थे।

भिखारी जो भीख मिलने की उम्मीद से मेरे पास रुक गया था, मेरे चेहरे का रंग बदलते देखकर बोला, “क्या बात है? बाबू जी!” 

“बाबा जी! बात यह है कि मेरी जेब साफ़ करने वाले ने किराये के तीस रुपए भी नहीं छोड़े . . . यह आख़िरी बस चलने वाली है . . . यहाँ जान ना पहचान . . . फँस गया ना बुरी तरह से?“ 

मैंने अपनी कटी हुई जेब दिखाते हुए, उसे अपनी व्यथा सुनाई। जिसे सुनकर उस भिखारी ने अपनी झोली से कुछ पैसे निकाले; और गिन कर मेरे हाथों मे देते हुए बोला, “बाबू जी! जल्दी से चढ़ जाओ बस स्टार्ट हो चुकी है।” 

मैं भिखारी से पैसे लेने में हिचकिचाया। 

वह वस्तुस्थिति को समझते हुए बोला, “बाबू जी! भीख नहीं दें रहा हूँ . . . उधार दें रहा हूँ।” 

उस समय मेरे पास ज़्यादा सोचने का वक़्त नहीं था। मैं उससे पैसे लेकर चलती बस में चढ़ गया। और बस की खिड़की से सिर निकालकर मैंने उससे पूछा, “तुम्हारा कोई पता ठिकाना . . .?“

“हमारा कोई ठिकाना नहीं होता . . . इसी तरह चलते-फिरते मुलाक़ात हो गयी तो वापिस कर देना . . . ” वह लापरवाही से बोला। 

इस घटना को घटे दस बरस गुज़र चुके हैं। मैं जब भी उस बस अड्डे पर जाता हूँ तो मेरी निगाहें उस भिखारी की तलाश करती रहती हैं; ताकि मैं उसका ऋण चुका सकूँ।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा
ग़ज़ल
कविता
सांस्कृतिक कथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में