साँप
सुनील कुमार शर्मापगली रो रही थी, “मेरे घर रोज़ साँप निकलता है . . . मैं सबके आगे हाथ-पैर जोड़ चुकी हूँ; पर कोई मुझे साँप मारकर नहीं देता।”
किसी ने उसे वार्ड के पंच के पास जाने कि सलाह दी।
पंच बोला, “. . .कोई बुढ़ापा पेंशन की बात होती अथवा कोई पीले–गुलाबी राशनकार्ड या शौचालय बनवाने का चक्कर होता तो मैं ज़रूर तेरी मदद करता; पर यह साँप मारने की बात तो मेरी समझ में नहीं आ रही है . . . हाँ तू भूरे सरपंच के पास चली जा शायद वो कुछ कर सके।”
सरपंच बोला, “वोटर-वाटर को तो मैं कोई तिकड़म लगाकर फँसा लेता; पर साँप को फँसाना तो मेरे बूते से बाहर है। तू ऐसा कर विपक्ष के नेता गजरू प्रसाद के पास चली जा, जिन्हें मैं फोन कर देता हूँ, वह कोई ना कोई समाधान ज़रूर निकाल लेंगे।”
विपक्ष के नेता गजरू प्रसाद को जब साँप के बारे में पता चला तो वह उछल पड़े, “जब मैं इस विषय में विधानसभा में बोलूँगा तो प्रदेश में भूकंप आ जायेगा।”
“भूकंप आने से क्या साँप भाग जायेगा?” पगली ने पूछा।
“साँप की आप चिंता ना करे, वह हमें कुछ नहीं कहेगा; क्योंकि हम शिवभक्त हैं,” नेता जी ने पगली को समझाया।
“आप शिवभक्त हैं, मैं तो नहीं?”पगली रुआँसी होकर बोली।
“अब हमें ना आपकी चिंता है, ना साँप की . . . हमें तो मुद्दा मिल गया मुद्दा . . .” नेताजी लगभग नाचते हुए बोले।
जिसे सुनकर, पगली दहाड़े मारकर रोने लगी, “मैं समझ गयी, अब यह साँप मेरे गले की फाँस बन गया है . . . यह ज़िन्दगी भर मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा . . .”
अगले दिन विधानसभा में नेता जी आँखें मटकाकर चिल्ला रहे थे, “लोगों के घरों में साँप, चीते घुस रहे हैं, और यह निकम्मी सरकार सो रही है . . .”
दूसरी तरफ़ पगली के घर में जीभ लापलपाता, आँखें मटकाता हुआ साँप मज़े से टहल रहा था, और पगली डर के मारे पसीने-पसीने हो रही थी।
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