लाचार मूर्तियाँ

15-09-2022

लाचार मूर्तियाँ

सुनील कुमार शर्मा  (अंक: 213, सितम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

एक चौराहे पर गाँधी जी के बंदरों की तीन मूर्तियाँ विराजमान थीं। 

दो मूर्तियाँ भारी रश का धक्कम-धक्का देखती रहतीं थीं। 

एक मूर्ति जो देख नहीं सकती थी, वह गाड़ियों के इंजनों की आवाज़ और ट्रैफ़िक का शोरशराबा सुनती रहती थी। 

अचानक उसी चौराहे पर एक दिन दंगा भड़क उठा। गाड़ियाँ, रिक्शे, टैम्पो आदि जलने लगे। जलते हुए टायरों के टुकड़े तथा पेट्रोल और तेज़ाब से भरी हुई कुछ बोतलें उन बंदरों पर भी आकर गिरीं। एक बंदर जिसने अपनी आँखों पर हाथ रखे हुए थे, वह अपने साथ सटकर बैठे साथियों से बोला, “यह क्या हो रहा है?”

उसका एक साथी जिसने कानों पर हाथ रखे हुए थे, वह बेचारा सुन ही नहीं सकता था क्या उत्तर देता? 

दूसरा साथी ना बोलने के लिए विवश था। 

गाँधी जी के सिद्धांतों की धज्जियाँ उड़ रहीं थीं, और उसकी तीनो मूर्तियाँ लाचार बैठीं थीं। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा
ग़ज़ल
कविता
सांस्कृतिक कथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में