काफ़िर

सुनील कुमार शर्मा  (अंक: 192, नवम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

आगरा के क़िले में कैद शाहजहाँ, क़िले की ऊपर वाली मंज़िल पर एक झरोखे में खड़ा ताजमहल को निहार रहा था। दूर यमुना के किनारे एक पीपल के पेड़ के नीचे खडे कुछ लोग, उस पेड़ की परिक्रमा करके लोटे से उसकी जड़ों में पानी डाल रहे थे। 

शाहजहाँ ने संतरी से पूछा, "ये कौन लोग हैं? क्या कर रहे हैं?”

"ये आस-पास के लोग हैं . . . ये पीपल की जड़ो में पानी डाल रहे हैं . . . इनका मानना है कि ख़ास दिन को पीपल की जड़ों में पानी डालने से इनके मरे हुए बाप, दादा, परदादा को इस गर्मी के मौसम में यह शीतल जल मिलता है," संतरी ने उतर दिया।

जिसे सुनकर शाहजहाँ के आँसू आँखों से टपक कर पैरों में जकड़ी बेड़ियों पर गिरने लगे। वह धीरे-धीरे चलकर पास पड़े लकड़ी के तख़्त पर बैठ गया और क़लम उठाकर अपने बेटे औरंगज़ेब को पत्र लिखने लगा—

"बेटा! जिन्हें तू काफ़िर कहता है, वे लोग अपने मरे हुए बाप, दादा, परदादा को पानी देते हैं . . . और तूने अपने ज़िन्दा बाप को भी बेड़ियों में जकड़ रखा है?" . . .

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