जाल

प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

"इतना सब कुछ हो गया और तूने मेरे आगे ज़िक्र तक करना ज़रूरी नहीं समझा . . . मुझे तो लगता है तूने मुझे कभी अपना माना ही नहीं . . . वो तो मैं ही थी, जो जीवन भर तेरी दोस्ती का दम भरती रही . . . " भीगी आँखें और रुँधा स्वर . . . रीमा के मस्तिष्क पर पीड़ा की लकीरें उभर आईं!

"ऐसी बात नहीं है . . . कितनी बार मन हुआ कि अपना दिल तेरे आगे उड़ेल कर रख दूँ . . .  पर बस, समझ ही नहीं आया कि शुरू कहाँ से करूँ . . .  और धीरे-धीरे मैं अकेली होती चली गई . . . ," संध्या ने अपने जज़्बातों के ज्वारभाटा पर क़ाबू पाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा।

दोनों सखियाँ यूँ तो चार बरस बाद मिली थीं, पर चार घण्टे भी न लगे इतना समय पाटने में!

"बस तू अमेरिका के लिए निकली, मेडिकल की शिक्षा के लिए, और यहाँ सुयोग्य वर देख, माँ पिताजी ने मेरा झटपट ब्याह तय कर दिया।

"एक बरस तो सिद्धार्थ के साथ ठीक गुज़रा . . . फिर बस उसने, ऊँची शिक्षा और बेहतर नौकरी का बहाना बना, यू.एस. जाने की रट लगा ली . . . और तो और, तगादा भी शुरू कर दिया कि पिताजी से, टिकट के पैसों का इंतज़ाम करने को कहूँ . . . तू सोच, मुझे कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी होगी . . . ख़ैर, जैसे-तैसे वो भी किया . . . 

"आज उसे गए दो बरस हो गए . . .  ईमेल, घर का पता, सब बदल लिया  . . . कोई ख़ैर-ख़बर नहीं . . .

"माँ का रो-रो कर वो बुरा हाल हुआ, अब तो बावली-सी हो गयी है  . . . पिताजी भी गुमसुम से रहते हैं . . . मैंने स्कूल में नौकरी कर ली है, सो समय कट जाता है . . . 

"ख़ैर, मेरी राम कहानी छोड़ , तू कुछ अपनी सुना . . . "

"बस, मेरा तो सब ठीक ही है, पढ़ाई पूरी करके पिछले साल हॉस्पिटल जॉइन कर लिया . . .  वहीं मेरी मुलाक़ात सिड से हुई . . . बड़ा ही नेक है, ऊँचे आदर्शों वाला  . . . बेचारे का दिल किसी लड़की ने ऐसा तोड़ा कि . . .  वो तो मेरी ही क़िस्मत अच्छी थी कि हमारे दिल आपस में मिल गए . . . रुक मैं तुझे उसकी फोटो दिखती हूँ . . . "

फोटो देखकर संध्या सन्न सी रह गयी . . . उसने झट अपने को सँभाला और नज़रें झुका लीं . . . !

सहसा दोनों सहेलियों की नज़र दीवार के कोने में उस मक्कड़ पर पड़ी, जो एक पल के लिए रुका . . . और फिर जाल बुनने में लग गया . . . !

आँखों ही आँखों में दोनों ने जाने क्या तो कहा . . . और क्या सुना! . . . .वे  मुस्कुराती हुई उठीं, उसी तस्वीर के सहारे, उस मक्कड़ को अखबार के कागज़ पर उतारा  . . . 

 . . . .और, जालसाज़ को . . . . दूर  . . . अपने घर से बाहर फेंक आईं !

हाथ झाड़ती, गलबहियाँ डाले, दोनों ख़ुशी-ख़ुशी घर में दाख़िल हुईं!!

1 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु
कविता-चोका
कविता
लघुकथा
कविता - क्षणिका
सिनेमा चर्चा
कविता-ताँका
हास्य-व्यंग्य कविता
कहानी
विडियो
ऑडियो