धुआँ (राजीव कुमार)

15-10-2020

धुआँ (राजीव कुमार)

राजीव कुमार (अंक: 167, अक्टूबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

भले ही कुछ लोगों ने  मज़ाक उड़ाया लेकिन ओम अब सीख गया है, सिगरेट के धुएँ को स्टाईल में छोड़ना। कुछ लोग उसके धुएँ वाली स्टाईल की तारीफ़ करके उसकी जेब ढीली कर लिया करते हैं। एक-एक कश में वो अपने आप को आनन्दित महसूस करता। पहले तो उसने इग्नोर किया बाद में ग़ौर किया कि धुएँ के छल्ले में किसी देवी की छवि दिख रही है।

अब सिगरेट के कश ने पुरस्कार स्वरूप उसको खाँसी दे डाली। वो जब भी खाँसना शुरू करता तो धुएँ में बनी देवी की छवि की भृकुटी तन जाती, आँखें अग्नि की तरह लाल हो जातीं और जब वो खाँसना बंद करता तो देवी की आँखें ग़ुस्से में तमतमाया चेहरा सामान्य हो जाता।

ओम ने जब यह बात अपने दोस्तों को बताई तो जवाब मिला, "तुम्हारा वहम है।" और वो खिलखिला कर हँस पड़े। खाँसी की दवाई लेने गए ओम ने जब यह बात डॉक्टर को बताई तो वो मौक़े की नब्ज़ को पकड़कर बोले, "हाँ हाँ बेटा, ऐसा होता है, सिगरेट छोड़ दो, वरना वो देवी तुम्हारा अनिष्ट कर देगी। तुम नहीं माने तो अंजाम बहुत बुरा होगा। वो तुमको समझा रही है। मैं तुम्हारी इस लत को एकदम छोड़वा दूँगा और एक पैसा भी नहीं लूँगा।" ओम ने जब यह बात बताई तो दोस्तों ने खिल्ली उड़ायी।

एक दिन ओम ने राह चलते हुए सिगरेट सुलगाई, उसको अचानक आभास हुआ कि किसी ने सिगरेट खींच कर नीचे गिरा दी है। सिगरेट मल-मूत्र वाली जगह पर गिरी थी, ओम ने इधर-उधर देखा और सिगरेट उठा कर पीने लगा। उसके चेहरे पर घृणा की कोई छाया नहीं थी।

उस देवी ने उसके जीवन को बचाने का बहुत प्रयत्न किया। ओम आज मृत्यु शैय्या पर लेटा था, वो उस देवी को अब पहचान चुका था। आग की लपटें ख़त्म होकर धुएँ में परिवर्तित हो गईं, बाद में वो देवी भी धुएँ की तरह ओझल हो गई।

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