अंधा

सुनील कुमार शर्मा  (अंक: 186, अगस्त प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

जब सूर्यदेव सिर के ऊपर आ गया, भीखू ने हल के जुए के नीचे से बैलों को निकालकर, एक पेड़ की छाया में बाँध दिया। फिर तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दिया। वह जैसे ही भागू की चौपाल के आगे से निकला। उसे देखकर, चौपाल में हुक्का गुड़गुड़ा रहा बदलु बोला, “ओ भीखू इतनी तेज़ क्यों भागा जा रहा है? . . . क्या कानी ने विशेष पकवान बना रखे है?“

जिसे सुनकर वह कुछ नहीं बोला; पर उसका ग़ुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। वह घर पहुँचते ही अपनी पत्नी पर बरस पड़ा, “कानी . . . कानी कहकर लोगों ने मेरा जीना हराम कर रखा है। बस तू इसी वक़्त यहाँ से दफ़ा हो जा। अगर तू फिर इस घर में नज़र आयी तो मै  तेरी दूसरी आँख भी फोड़ दूँगा . . . ।“ यह कहते हुए, उसने धक्के मारकर अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया। और वह बिना कुछ  खाये–पिए, भूखा-प्यासा उसी हालत में वापिस खेत की ओर चल दिया।

वह जब खेत से काम निपटाकर, बैलों को लेकर घर की ओर चला तो सूरज डूब चला था। सभी लोगों के घरों मे दिए जल चुके थे; पर उसके घर में अँधेरा था।

घर पहुँचकर, उसने बैलों को नांद पर बाँधा, और चुपचाप घर के आँगन में चारपाई बिछाकर लेट गया। जब थोड़ी थकावट दूर हुई तो उसने उठकर घर का दरवाज़ा खोला; पर उसे पता ही नहीं था कि कहाँ दिया पड़ा है और कहाँ दियासिलाई। उसने अँधेरे में इधर-उधर हाथ मारा पर उसे कुछ ना मिला। फिर वह सिर पकड़कर बैठ गया और लगा लोगों को कोसने . . . हरामज़ादे कानी . . . कानी कहते थे . . . अब कोई यह पूछने नहीं आ रहा, सब के घर में दिए जल रहे है, तेरे घर में अँधेरा क्यों? . . . एक बार कानी वापिस आ जाये तो मैं उसे कुछ नहीं कहूँगा,“ वह ज़ोर से चिल्लाया।

उसके मुँह से अभी यह शब्द निकले ही थे कि उसकी पत्नी एकदम से पशुओं वाले छप्पर से बाहर निकल आयी।

आते ही उसने कमरे में दिया जला दिया। उसके बाद उसने हमेशा की तरह उसके आगे पानी का गिलास रखा। वह एकदम से सारा गिलास पानी पी गया।

उसके बाद उसने फ़ुर्ती से चूल्हे में लकड़ी लगा दी ओर दोपहर की बची हुई रोटियाँ सेंकने लगी थोड़ी देर में दाल के साथ गर्म-गर्म रोटियों का थाल उसके सामने आ गया। वह उन रोटियों पर भूखे शेर की तरह टूट पड़ा। आठ-दस रोटियाँ खाने के बाद उसे कुछ चैन आया। जब वह सामान्य हुआ तो पत्नी ने धीरे से उससे पूछा, ”. . . दोपहर को आपको क्या हो गया था?“

“अरी, कुछ नहीं हुआ था . . . बस मैं लोगों की बातों मैं आकर अंधा हो गया था,“ वह अपने आप पर खीझते हुए बोला।

1 टिप्पणियाँ

  • 3 Aug, 2021 02:13 PM

    आँखों के होते हुए भी अंधा बने रहने वाला महामूर्ख ही होता है।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा
ग़ज़ल
कविता
सांस्कृतिक कथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में