ज़िंदगी
डॉ. सुकृति घोषद्वार खड़ी थी इक दिन वो, बनठनकर मुस्कान सजाकर
बेतरतीब सी बाहर आकर, देखा था मैंने आँखें मलकर
हाथ थामकर बोली हाय, भूल गई तू मुझको क्योंकर
देख रही थी अपलक मैं, बातें उसकी निश्छल सुनकर
ख़ूब हँसाया मुझको उसने, बचपन मेरा याद दिलाकर
तरुणाई की रुचिर सलोनी, कनबतियों को दोहराकर
हाल बुरा क्यों तेरा ऐसा, हौले से बोली गाल को छूकर
सुन्दर मुख में सलवट कैसी, पूछा उसने नेह से भरकर
खुली हवा में खींच ले गई, जबरन मेरी बाँह थामकर
बारिश में फिर मुझे भिगोकर नाच उठी थी घूम घूमकर
सौग़ात में फ़ुरसत के पल देकर, गीत लबों पर ठहराकर
झिलमिल नैनों से जादू सा कर, अरमानों से झोली भरकर
ख़ुशियों का अंबार लगाया, प्रीत की चूनर लहराकर
मन की निर्जल धरती पर, चाहत की फुहारें बरसाकर
सम्मोहित सा मुझे कर गई, दीप आस का दिखलाकर
चैतन्य मुझे वो पुनः कर गई, जीवन अमृत बिखराकर
जब पूछा मैंने नाम था उसका, ख़ूब हँसी थी इठलाकर
बोली मुझसे, मैं हूँ ज़िंदगी, जीती है तू जिसे भुलाकर
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