अहसास
डॉ. सुकृति घोषबहुत लाड़ली और भोली सी थी मैं, इकलौती बिटिया जो ठहरी। मेरे मुँह खोलने से पहले ही मेरी सारी इच्छाएँ पूरी हो जाती, नाज़ों की पाली जो थी। थोड़ी शांत सी, पढ़ाई में ध्यान देने वाली, कुछ कम बोलने वाली, अपने आप में खोई सी लड़की। एक दिन माँ को कहते हुए सुना, “नए पड़ोसी आए हैं, बग़ल वाला मकान ख़रीदा है किसी ने।”
शाम को पापा ने बताया, “अरे अपने निगम साहब हैं, दो बच्चे हैं, अपनी शिवानी के हमउम्र।”
माँ और आंटीजी में अच्छी-ख़ासी जान-पहचान हो गई। आंटी की बिटिया शालिनी मुझसे दो साल छोटी और बेटा शेखर मुझसे दो साल बड़ा था। हमारे छत मिले हुए थे। धीरे-धीरे हम बच्चे भी एक दूसरे से घुल-मिल गए। छत से ही कूदकर कभी इधर तो कभी उधर, अक़्सर हम ऐसे ही खेला करते।
‘शीबू बेटा घर आ जाओ, साँझ हो रही है,’ माँ रोज़ पुकारती, बेमन से रोज़ छत से नीचे आती। नए साथी पाकर बेहद ख़ुश रहने लगी थी मैं।
समय को जैसे पंख लग गए, हमारा खेलकूद कब गप्पों में परिवर्तित हो गया, पता ही नहीं चला। पढ़ाई का कितना भी दबाव होता, शाम के समय हम तीनों छत की मुँडेर पर बैठकर कुछ देर गपियाते, बेसिर पैर की बातों में ज़ोर-ज़ोर से हँसते। शेखर बारहवीं में आ गया था और मैं दसवीं में। पढ़ाई में हम अब कुछ ज़्यादा ही व्यस्त रहने लगे। ऐसी ही एक शाम, शालिनी ने चहकते हुए बताया, “पता है, शेखर का अर्थ क्या होता है, ‘भगवान शिव’, मैंने आज ही पढ़ा!” उसका ख़ुशियों से भरा वो चेहरा मेरे ज़ेहन में आज तक बसा हुआ है, जैसे कोई बहुत अनोखी बात कह दी हो। मैं भी कहाँ पीछे रहने वालों में से थी, झट से अपना ज्ञान बघारा, “मेरा नाम शिवानी भी तो पार्वती जी का ही एक नाम है।” बोलने के एक क्षण उपरांत ही मेरा दिल जाने क्यों तेज़ी से धड़क उठा, नज़रें झुकाकर ही ख़ुद को कोसा, ‘हर बात बोलना ज़रूरी है क्या!’ रात सोने से पहले देर तक सोचती रही, ‘वो शेखर, मैं शिवानी, मेरा ध्यान इस बात पर पहले कभी गया ही नहीं’ अगले ही पल ख़ुद को ज़ोर से डाँटा, ‘इन सब फ़ालतू बातों में मुझे नहीं उलझना है, मुझे बहुत सारी पढ़ाई करनी है, पापा जैसा बनना है।’ अपने समझदार और बुद्धिमान होने का बहुत नाज़ था मुझे। बात आई गई हो गई।
शेखर अक़्सर किताबें और नोट्स देकर मेरी सहज भाव से सहायता करता, कैसे क्या क्या पढ़ना है बताता, गणित के कठिन सवाल हल करवाता। बोर्ड की परीक्षाओं में हम दोनों बहुत अच्छे नम्बरों से पास हो गए। शेखर ने कॉलेज में दाख़िला ले लिया था। इधर यौवन ने बिना बताए चुपके से मेरी मन और देह में डेरा डालना शुरू किया। आसमान पर छाई काली घटाओं को बरसने से कोई रोक सका है भला? आइने के सामने खड़े होकर ख़ुद को प्यार से निहारने लगी थी मैं। मन को अक़्सर लगाम लगाने की असफल कोशिशें करती पर मन था कि मुझसे यदा-कदा कुछ पल की मोहलत माँगकर कल्पना की दुनिया में विचरण करने निकल ही पड़ता और मैं लाख मिन्नतों के बाद भी उसे वापस नहीं बुला पाती। उस कल्पना की दुनिया में मन उसी जाने पहचाने चेहरे को बार-बार आवाज़ देता . . . शेखर . . . शेखर . . . मैं मन को समझाती ‘झूठ है सब, उसने तो कभी कुछ नहीं कहा न ही जताया।’ मन दलीलें देता ‘भले उसने न कहा हो, पर कल्पना का संसार तो मेरा है, कुछ पल के लिए ही सही, ख़ुश हो लेने में क्या बुराई है।’ मैं मन को सँभालती, डाँटती रहती और मन था कि नटखट ज़िद्दी बच्चे की भाँति बस एक ही रट लगाता शेखर . . . शेखर . . . और शेखर था कि शायद इन सब से बेख़बर अपनी नई कॉलेज की दुनिया में रमने लगा था। नई जगह, नए लोग, नए दोस्त और नया शौक़; चित्रकारी। ख़ाली समय में शेखर सुन्दर-सुन्दर पेंटिंग्स बनाने लगा था, चित्र भी ऐसे सजीव कि बस अभी बोल पड़ेंगे। उसकी बेबाक बातें, निश्छल हँसी, नीली टी-शर्ट, पीला हाफ स्वेटर, काला पेन, उसकी लिखावट, लिखने का अंदाज़, उसका खिलंदड़ापन, मुझे सब कुछ बेहद मोहक लगने लगा था। मेरा मन ऋतुराज की सारिका बनकर हर पल उसे पुकारने लगा था।
समय निर्मोही संन्यासी की भाँति अपने पथ पर अग्रसर होता रहा। जैसे शतदल की पंखुड़ी पर कोई ओस की बूँद हो, समय हमारे साथ होते हुए भी हमारा नहीं होता। दो साल और बीत गए। बारहवीं की परीक्षा के बाद मेरे पास बहुत सारा ख़ाली समय हुआ करता। मैंने भी मन की लगाम को कुछ ढीला कर दिया ‘जा कुछ दिन तू भी जी ले, कर ले कल्पनाएँ।’ एक दिन आंटीजी और माँ को बतियाते देख मैंने मनुहार किया, “आंटी शेखर से बोलिए ना मुझे भी पेंटिंग सिखा दे।” आंटीजी ने छूटते ही कहा, “शिवानी, बेटा तू ख़ुद ही बोल दे उसे।”
अगले दिन से शेखर मुझे चित्रकारी सिखाने लगा, बड़े जतन से ख़ुद ही छाँटकर ब्रश, पेंट, कैनवस सब ले आया। पेंटिंग्स की बारीक़ियाँ समझाता, ब्रश के स्ट्रोक्स बताता। उसका सानिध्य पाकर मेरा मन पुष्कर की तरह खिल उठता था, सोचती, ‘काश समय यहीं रुक जाए, शेखर बोलता रहे, मैं सुनती रहूँ, मुझे और कुछ नहीं चाहिए, बस शेखर मेरे सामने रहे।’
एक दिन शेखर मुझसे बोला, “सुन, तेरे लिए एक पेंटिंग बना रहा हूँ।” सुनते ही मेरी तो बाँछें खिल गईं, क्या बना रहा होगा शेखर, शायद एक बड़ा सा दिल जिसमें एक तीर लगा हुआ होगा या कोई फूल और भँवरा या क्या पता मेरी ही तस्वीर बना रहा होगा उसमें प्यार के शब्द लिखेगा। मैं बेसब्री से पेंटिंग की प्रतीक्षा करने लगी; मेरे दिन और रात बस उसी इंतज़ार में बीतने लगे। आख़िर एक दिन खिली-खिली मुस्कान के साथ शेखर मेरे लिए बनाई पेंटिंग ले ही आया, ऊपर गिफ़्ट पैकिंग थी। बोला, “तेरे लिए है, कैसी लगी ज़रूर बताना।”
मैं उसे छुपाकर अपने कमरे में ले गई, कमरे का दरवाज़ा उढ़का कर जल्दी-जल्दी पैकिंग खोलने लगी, बीच-बीच में चोर नज़रों से दरवाज़े को भी देख लेती, कहीं कोई आ न जाए, ‘जाने शेखर ने कौन सी पेंटिंग बनाई है।’ मेरा उत्साह सातवें आसमान पर था सारी चेतना आँखों में समाकर पेंटिंग को देखना चाहती थी। पैकिंग खुली, ये क्या! पेंटिंग को देखकर मेरा सारा उत्साह ठंडा पड़ गया, मेरे सपनों का महल भरभराकर ढह गया, शेखर ने शंकर पार्वती का बहुत सुन्दर चित्र बनाया था। न कोई दिल, न कोई फूल, न ही प्यार के शब्द। निराशा से आँखें भर आईं। मैंने कितना इंतज़ार किया था इस दिन के लिए लेकिन! रख दिया था मैंने उस पेंटिंग को उठाकर किताबों के बीच। अपने बिस्तर पर लेट गई थी।
“क्या हुआ? दिन में लेटी क्यों है बेटा, तबीयत ठीक तो है तेरी,” माँ के इतना कहते ही मेरे सब्र का बाँध टूट गया। फफक कर रोने लगी थी।
”अरे क्या हुआ मेरी लाडो,” माँ ने प्यार से सिर पर हाथ फेरा। सिरदर्द का बहाना बनाकर कहा, “थोड़ी देर सो जाती हूँ।”
शाम को मुझे छत पर देख, शेखर ने पुकारा, “सुन शिवानी, पेंटिंग देखी क्या? कैसी लगी?” मैंने कुछ देर ख़ामोश रहकर कहा, “सुन्दर है।”
शेखर ने अचानक थोड़ा क़रीब आकर पूछा, “सिर्फ सुन्दर?”
मैंने नज़रें उठाकर शेखर को देखा, मन ही मन सोचा मेरे दिल को ज़ार-ज़ार रुलाकर इसे अपनी पेंटिंग की तारीफ़ सुननी है, “तो और क्या कहूँ? सुंदर बनाई है पेंटिंग तुमने, शिव पार्वती की,” मैंने कहा था।
शेखर ने आँखों में आँखें डालकर कहा, “शेखर-शिवानी की जोड़ी है ही सुन्दर,” फिर अपने बेबाक अंदाज़ से हँसते हुए मज़ाक में कहा, “सिर्फ पढ़ाई में ही अच्छे नम्बर ले आती है तू, वो भी मेरे कारण, बाक़ी है तू निरी बुद्धू।”
मैं सिर से पाँव तक झनझना उठी थी, आँखों में आँसू और चेहरे पर मुस्कान लिए शेखर को थाम लिया था मैंने। सच में कितनी बुद्धू थी मैं।
1 टिप्पणियाँ
-
किशोर मन की कोमल भावनाएं,,सहज,-भोगी हुई सी
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- सांस्कृतिक आलेख
-
- अष्ट स्वरूपा लक्ष्मी: एक ज्योतिषीय विवेचना
- अस्त ग्रहों की आध्यात्मिक विवेचना
- आत्मिक जुड़ाव
- आयु भाव के विभिन्न आयाम
- एकादशी व्रत का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण
- कर्म का सिद्धांत और ज्योतिष
- केमद्रुम योग
- गजकेसरी: एक अनूठा योग
- चंद्रमा और आपका भावनात्मक जुड़ाव
- पंच महापुरुष योग
- बारहवाँ भाव: मोक्ष या भोग
- राहु और केतु की रस्साकशी
- राहु की महादशा: वरदान या अभिशाप
- लक्ष्मीनारायण योग
- वक्री ग्रहों की आध्यात्मिक विवेचना
- विवाह पर ग्रहों का प्रभाव
- व्यक्तित्व विकास की दिशा का निर्धारण
- शनिदेव की दृष्टियों के भेद
- सूर्य-चंद्र युति: एक विश्लेषण
- कविता
-
- अवकाश का अहसास
- आनंद की अनुभूति
- आस का इंद्रधनुष
- आख़िर बीत गई दिवाली
- उस सावन सी बात नहीं है
- एक अलौकिक प्रेम कहानी
- कान्हा तुझको आना होगा
- क्या अब भी?
- खो जाना है
- गगरी का अंतस
- जगमग
- दीपावली की धूम
- दीपोत्सव
- नम सा मन
- नश्वरता
- नेह कभी मत बिसराना
- पंछी अब तुम कब लौटोगे?
- पथ की उलझन
- प्रियतम
- फाग की तरंग
- फिर क्यों?
- मन
- मृगतृष्णा
- मेरा वो सतरंगी फागुन
- राम मेरे अब आने को हैं
- राही
- लम्हें
- वंदनीय शिक्षक
- शब्द शब्द गीत है
- शिक्षक
- श्याम जलद तुम कब आओगे?
- संवेदनाएँ
- साँझ
- सुनो सुनाऊँ एक कहानी
- होलिका दहन
- ज़िंदगी
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-