नम सा मन
डॉ. सुकृति घोषकभी बड़ी से बड़ी बात भी, हँस हँसकर सह जाता है
कभी तुच्छ सी तनिक बात पर, कतरा कतरा रोता है
कभी लौह सा कभी मोम सा, किस माटी से बनता है
बहुरूपी सा अपरिभाषित, मन ये गोपन, नम सा है
कभी हो जैसे नन्हा बच्चा, ज़िद पर अपनी अड़ता है
कभी कभी तो नटखट सा है, बहुल शरारत करता है
कभी तो बनकर कोई मनस्वी, आत्मज्ञान में खोता है
बहुरूपी सा अपरिभाषित, मन ये गोपन, नम सा है
कभी छुपाकर, ख़ूब सजाकर, यादों को महकाता है
कभी नैन से सात समंदर छलक छलक छलकाता है
कभी अधर पर धर मुस्कानें, मंजुल दमक सजाता है
बहुरूपी सा अपरिभाषित, मन ये गोपन, नम सा है
कभी मीत से प्रीत जोड़कर, प्रणय सुधा में खिलता है
कभी विरह की तेज़ धूप में, गुमसुम सा कुम्हलाता है
कभी जीतकर कभी सीखकर, आस छाँह सुस्ताता है
बहुरूपी सा अपरिभाषित, मन ये गोपन, नम सा है
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