राही
डॉ. सुकृति घोषडगर डगर चलता है राही, ठौर न इक पल पाता है
सुख की खोज निरंतर जारी, सुंदर स्वप्न सजाता है
मृगतृष्णा से व्याकुल राही, तन मन से अकुलाता है
बंधु स्वजन की प्रीत त्यागकर, दूर देश खो जाता है
डगर डगर चलता है राही, ठौर न इक पल पाता है
राह खड़े तरुवर छाया में, क्षण भर ठहर न पाता है
पंथ के मंज़र सुंदर रुचिकर, देख हृदय ललचाता है
चलते रहने की धुन में हाय, मन मसोस रह जाता है
डगर डगर चलता है राही, ठौर न इक पल पाता है
चलते चलते उम्र हो चली, देह से अब थक जाता है
पर अपनी मंज़िल को वह, तनिक निकट न पाता है
जैसे मरूभूमि में पुष्कर, सुख का पता खो जाता है
डगर डगर चलता है राही, ठौर न इक पल पाता है
सहसा रुक कर पीछे मुड़कर, देख दंग रह जाता है
पीछे सुख के अनगिन पल छूटे, पीड़ा में पछताता है
जीवन की इस संध्या वेला में, सत्य जान घबराता है
डगर डगर चलता है राही, ठौर न इक पल पाता है
टूटे तन से क्लांत हृदय से, घर की ओर मुड़ जाता है
बदले से परिदृश्य को पाकर, अनजाने में सकुचाता है
लेकिन सुख की खोई मंज़िल, अनायास पा जाता है
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