पुनरागमन
डॉ. सुकृति घोष
रोज़ की तरह आज भी नन्ही घंटियों की आवाज़ से शांतनु की आँखें खुल गईं। उसने घड़ी देखी, ठीक 6:30 बज रहे थे। कोने के कमरे से माँ की मधुर आवाज़ आ रही थी। धीमे लेकिन स्पष्ट स्वर में मंत्रोच्चार करती हुई, शांतनु की माँ राम रक्षा स्तोत्र का पाठ कर रही थी, “ऊँ ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् . . .”
सुबह-शाम माँ रोज़ घर के कोने वाले कमरे के छोटे से मंदिर में, पूजा पाठ करती थी। शांतनु ने जब से होश सँभाला, उसने माँ की यही दिनचर्या देखी थी। वह रोज़ माँ के मंत्रोच्चार की आवाज़ से ही सोकर उठता और उठते ही हाथ जोड़कर ईश्वर को नमन करता।
शांतनु की माँ देवयानी एक पढ़ी-लिखी, धार्मिक और संस्कारवान महिला थी। शांतनु महज़ नौ बरस का ही था, जब उसके पिता की हृदयाघात से मृत्यु हो गई। लेकिन देवयानी ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने एक स्कूल में नौकरी की तथा अकेले ही अपने बेटे शांतनु की अच्छे से परवरिश की। शांतनु ने भी माँ की मेहनत की लाज रखी थी। शांतनु पढ़ाई में काफ़ी तेज़ था, साथ ही माँ के संस्कारों के कारण एक बहुत अच्छा इंसान भी था। शांतनु ने डॉक्टरी की पढ़ाई की और मनोरोग विशेषज्ञ बन गया। शहर में शांतनु लाहिड़ी का बहुत अच्छा नाम था।
इकत्तीस वर्ष का शांतनु अपनी माँ का बहुत ध्यान रखता। “माँ के कारण ही मैं आज इस मुक़ाम तक पहुँचा हूँ।” वह अक्सर सोचता।
”शांतनु, बेटा, अब तू शादी कर ले। पढ़ाई हो गई, अच्छा कमा रहा है, अब और किस बात का इंतज़ार है? तू एक बार कह दे, तो मैं ही तेरे लिए दुल्हनिया ढूँढ़ लूँ। कुछ कहता क्यों नहीं?” माँ अक्सर झुँझलाती। जवाब में शांतनु हमेशा ही चुप्पी लगा जाता।
‘पता नहीं कोई अनजान लड़की आकर माँ के साथ कैसा व्यवहार करेगी। अगर उसने मेरी माँ का उचित सम्मान नहीं किया तो फिर घर में कितनी अशांति होगी। और मैं कैसे सहन करूँगा यह सब।’ शांतनु आस-पास का माहौल देखकर मन ही मन सोचता। वह अपने मन को शादी के लिए तैयार ही नहीं कर पाता था।
शांतनु अपनी दुनिया में बेहद ख़ुश और संतुष्ट रहने वाला इंसान था। ऐसे ही एक दिन वह अपने क्लीनिक में था। अटेंडर एक के बाद एक पेशेंट्स को अंदर भेज रहा था। तभी एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने एक युवा लड़की के साथ क्लीनिक में प्रवेश किया।
“डॉक्टर साहब, ये मेरी बेटी मधुरिमा है। वैसे तो ये बिल्कुल ठीक है, लेकिन यह अत्यधिक ग़ुस्सैल और ज़िद्दी है। छोटी-छोटी बातों पर इसका ग़ुस्सा और ज़िद कभी-कभी इतनी भयंकर हो जाती है कि सँभाले नहीं सँभलती। होश खोकर ये घर की क़ीमती चीज़ों को भी उठाकर पटक देती है। यह बचपन से ऐसी ही है।” व्यक्ति काफ़ी परेशान होते हुए कह रहा था। “हमें लगता था कि जैसे-जैसे बड़ी होगी, समझदार होती जाएगी। लेकिन इसका ज़िद्दी और ग़ुस्सैल स्वभाव बिल्कुल नहीं बदलता। आप ही इसका इलाज कीजिए, कल को जब इसकी शादी होगी तो इसके ज़िद्दी और ग़ुस्सैल स्वभाव के आगे रिश्ते भी बच नहीं पाएँगे। हम तो माँ-बाप हैं, सो निभा ले जाते हैं, और कोई सहन नहीं कर पाएगा साहब।” कहते-कहते लड़की के पिता ने हाथ जोड़ लिए थे।
शांतनु ने एक नज़र उस लड़की को देखा, गेंहुआँ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, सुंदर नैन-नक़्श, लंबे बाल, मोहक मुस्कान, आकर्षक देहयष्टि; जैसे विधाता ने स्वयं बड़े जतन से उसे गढ़ा हो। कोई उसे देखकर यह कह नहीं सकता था कि ये लड़की इतनी ज़्यादा ग़ुस्सैल और ज़िद्दी हो सकती है।
”ये तो इसका स्वभाव ही है, कोई मनोरोग थोड़ी न है। इसके लिए किसी दवा की ज़रूरत नहीं है, मैं काउंसलिंग कर दूँगा। बस तीन-चार काउंसलिंग के बाद ही आपको फ़र्क़ दिखना शुरू हो जाएगा,” शांतनु ने मुस्कुराकर बड़े ही संयत स्वर से कहा था। ”आप कल से आइए,” शांतनु ने मधुरिमा की और देखते हुए कहा था। जवाब में एक अच्छी बच्ची की तरह मधुरिमा ने “हाँ” में सिर हिला दिया।
अगले दिन से मधुरिमा की काउंसलिंग शुरू हो गई। वह चार-चार दिन के अंतर से क्लीनिक आने लगी। शांतनु एक प्रोफ़ेशनल मनोरोग विशेषज्ञ था। उसने जाने कितने ही पेशेंट्स को ठीक किया था। उसे अपना काम अच्छी तरह से आता था। महज़ बीस वर्ष की मधुरिमा बड़ी जल्दी ही शांतनु से घुल-मिल गई। शांतनु की बताई इंस्ट्रक्शंस का अच्छे से पालन करने लगी। शांतनु की गहरी आवाज़, आकर्षक व्यक्तित्व, समझाने का हल्का-फुल्का मज़ाकिया ढंग उसे बेहद पसंद आता। फिर वही हुआ जो विधि का विधान था। मधुरिमा को शांतनु से प्यार हो गया। उसे रोज़ क्लीनिक पर जाने की उत्कंठा रहती। उसे रात-दिन बस शांतनु का ही ख़्याल रहने लगा। वह शांतनु पर पूरी तरह फ़िदा हो गई। प्रेम की अनिर्वचनीय कोमलता को महसूस करते ही मधुरिमा का ग़ुस्सा और ज़िद कब छू मंतर हो गई, पता ही नहीं चला। शांतनु के पिता मधुरिमा का यह रूप देखकर आश्चर्यचकित रह जाते और अक्सर अपनी पत्नी से शांतनु की तारीफ़ करते नहीं थकते, “भई ये डॉक्टर तो लाखों में है, इतनी जल्दी बच्ची का इलाज कर दिया।” उन्हें क्या पता था कि यह तो प्यार का जादू है। इन सबसे बेख़बर शांतनु अपना काम ईमानदारी से करता रहा।
उस दिन क्लीनिक की छुट्टी थी। शांतनु घर पर ही था। अचानक मधुरिमा के पिता को अपने घर पर आया देख वह अवाक् रह गया।
”बहनजी, आपके बेटे के लिए अपनी बेटी का रिश्ता लेकर आया हूँ। आपका बेटा लाखों में एक है, उसने तो मेरी बेटी के स्वभाव में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया। मेरी बेटी डॉक्टर साहब को बहुत पसंद करने लगी है, प्लीज़ मना मत कीजिगा,” मधुरिमा के पिता, शांतनु की माँ से कह रहे थे। सुनकर शांतनु हैरान रह गया। उसने तो सपने में भी ऐसा नहीं सोचा नहीं था।
“वह मुझसे ग्यारह साल छोटी है अंकल जी, ये तो सम्भव नहीं हो पाएगा,” माँ कुछ कहती, उससे पहले ही शांतनु बोल पड़ा था। लेकिन होनी अपना मायाजाल बिछा चुकी थी। इस बीच माँ, मधुरिमा से मिल आईं और उन्हें वह बहुत अच्छी लगी।
“माँ, वो लड़की एक तो मुझसे बहुत छोटी है, दूसरे वह बहुत ग़ुस्सैल और ज़िद्दी स्वभाव की है, जिससे बाद में दिक़्क़तें हो सकती हैं।” शांतनु माँ को समझाता रहा लेकिन देवयानी के मन में शांतनु के ब्याह का चाव अत्यधिक ज़ोर पकड़ चुका था।
“अरे नहीं बेटा, उसका स्वभाव तो अब बदल चुका है। इसके अलावा तू देखना, हमारे घर में उसे इतना प्यार मिलेगा कि उसका वो भयंकर स्वभाव कभी लौटकर नहीं आएगा।” देवयानी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। आख़िरकार मधुरिमा, मधुरिमा के पिता और देवयानी की कोशिशें रंग लाई और शांतनु को विवाह के लिए मना ही लिया गया।
शांतनु और मधुरिमा के विवाह के बाद का लगभग एक साल तो मानो पंख लगा कर उड़ गया। उन दोनों को ख़ुश देखकर देवयानी के पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते थे। लेकिन शांतनु का डर निर्मूल नहीं था। जैसे-जैसे मधुरिमा के सिर से प्यार और शादी का भूत उतरता गया, वैसे-वैसे उसका ग़ुस्सैल और ज़िद्दी स्वभाव सामने आने लगा था। पहले पहल शांतनु के समझाने बुझाने पर मधुरिमा शांत हो जाती थी। लेकिन बाद में वही हुआ जिसका शांतनु को डर था, अब तो शांतनु भी उसे समझाने में असमर्थ रहने लगा। मधुरिमा छोटी-छोटी बातों पर अपना आपा खो बैठती और निरीह देवयानी पर अपना ग़ुस्सा उतारती। शांतनु अपने क्लीनिक चला जाता और मधुरिमा अपनी सास पर अत्याचार करती, उसे अनाप-शनाप बोलती।
बेचारी देवयानी घर की शान्ति के लिए सब कुछ सहन करती रहती। लेकिन एक दिन तो हद ही हो गई। शांतनु शाम को क्लीनिक से घर लौटा तो मधुरिमा ने हंगामा मचा रखा था। शांतनु के आते ही मधुरिमा उस पर बरस पड़ी और उससे दो टूक शब्दों में कह दिया कि माँ का रोज़-रोज़ देर तक पूजा करना उसे बिल्कुल सहन नहीं होता। उसे घ॓टियों की आवाज़ तथा मंत्रोच्चार से नफ़रत होती है।
“माँ से कह दो कि पूजा न किया करें।”
मधुरिमा की इस अजीब सी ज़िद को सुनते ही क्रोध और दुख से शांतनु भी कुछ देर के लिए असंयत हो गया, लेकिन फिर ख़ुद को सँभालते हुए कहा, “यह कैसी ज़िद है, मधुरिमा? माँ बचपन से ही पूजा पाठ में रुचि लेती हैं, तुम्हें तो पता ही है।”
“चाहे जो भी हो जाए शांतनु, माँ को इस घर में रहना है तो उन्हें पूजा-पाठ छोड़ना होगा।” मधुरिमा ने ज़िद पकड़ ली थी। आख़िर वही हुआ जिसका शांतनु को अंदेशा था। मधुरिमा ने घर में इतनी अशान्ति फैलाई कि देवयानी को घर से अलग होना पड़ा। व्यथित मन से शांतनु ने माँ के रहने के लिए दूसरे घर की व्यवस्था की। बेटे के सुख की ख़ातिर देवयानी सब कुछ चुपचाप सहन करती रही। माँ के लिए शांतनु ने उस दूसरे घर में भी एक छोटा सा मंदिर बनवाया, नौकर रखे। माँ के लिए उसने कोई कमी न छोड़ी। देवयानी कभी भी अपने बेटे से अलग नहीं रही थी, लेकिन बेटे की ख़ुशी के लिए उसे यह भी करना पड़ा। शांतनु हफ़्ते-दस दिन में अपने काम से समय निकाल कर माँ से मिलने आ जाया करता था। कभी-कभी काम अधिक होने पर वह पंद्रह दिनों में एक बार आ पाता। एक ही शहर में होते हुए भी देवयानी अपने बेटे को देखने के लिए भी तरस जाती। अकेलापन उसे को काट खाने को दौड़ने लगा। अपना दुख वह किसी से नहीं कहती, लेकिन अंदर ही अंदर घुटने लगी। सुबह-शाम पूजा-पाठ करती और बस यूँ ही बैठी रहती। उसका मन किसी काम में नहीं लगता। शांतनु सब कुछ जानता और समझता था, वह भी कम दुखी और परेशान नहीं था। उसे माँ की बहुत चिंता रहती। लेकिन उसके पास स्थितियों को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। वह करता भी तो क्या, उसने तो मधुरिमा के स्वभाव को जानते-बूझते हुए भी उससे विवाह किया था।
देवयानी इस स्थिति को ज़्यादा दिन तक नहीं सह पाई। वह अपने बेटे के वियोग को स्वीकार ही नहीं कर पा रही थी। आख़िर एक दिन देवयानी रात में सोई तो सोती ही रह गई और अपने सभी कष्टों को अलविदा कह गई। इस हादसे से सँभलने में शांतनु को बहुत समय लग गया। वह अंदर ही अंदर टूट चुका था। जिस माँ ने उसे इतने कष्टों से पाला-पोसा, क़ाबिल बनाया, अंतिम समय में उनकी सेवा करना तो दूर, वह उनके पास भी नहीं रह पाया, इसका मलाल शांतनु को सदा रहता। मधुरिमा को कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा क्योंकि देवयानी से उसका जुड़ाव था ही नहीं। घर के कोने वाले कमरे में माँ का मंदिर, पूजा का सामान अभी भी वैसे का वैसा ही रखा था, लेकिन पूरी तरह से उपेक्षित था। मधुरिमा को पूजा-पाठ में ज़रा भी रुचि नहीं थी। शांतनु ही सुबह-शाम माँ को याद करके मंदिर में हाथ जोड़ लेता था। मधुरिमा का स्वभाव अभी भी वैसा ही था, छोटी-छोटी बातों पर ग़ुस्सा करना ज़िद पर अड़ना। लेकिन अब तो शांतनु को मानो इन सब की आदत पड़ चुकी थी।
देवयानी को गुज़रे दस महीने हो चले थे। कितना भी बड़ा दुःख हो, समय आख़िर उसपर मरहम लगा ही देता है। शांतनु भी अपने काम में मन लगाने लगा था और मधुरिमा के स्वभाव के साथ सामंजस्य बिठाते हुए, जीवन की गाड़ी को पटरी पर लाने की कोशिश भी करने लगा था। उसी समय एक बड़ी ख़ुशी ने शांतनु के जीवन में दस्तक दिया। मधुरिमा माँ बनने वाली थी। शांतनु सब कुछ भूल कर मधुरिमा का बहुत ध्यान रखता। समय आने पर एक प्यारी बिटिया ने शांतनु को पिता होने का गौरव प्रदान किया। शांतनु को गुड़िया के रूप में मानो जीने का सहारा ही मिल गया था।
गुड़िया, शांतनु और मधुरिमा दोनों की आँखों का तारा थी। मधुरिमा भले ही कितनी भी ग़ुस्सैल हो, लेकिन गुड़िया पर उसे कभी ग़ुस्सा नहीं आता। गुड़िया अभी मुश्किल से डेढ़ साल की थी, ठुमक ठुमक कर चलती हुई जब-तब कोने वाले कमरे में पहुँचकर, देवयानी के मंदिर को एकटक देखती रहती, अनजाने ही अपने छोटे-छोटे हाथ जोड़ लेती। मधुरिमा हमेशा ही उसे बहलाकर, खींचकर वहाँ से ले आया करती।
उस दिन रविवार था, शांतनु के क्लीनिक की छुट्टी थी। अचानक सुबह 6:30 बजे नन्ही घंटियों की आवाज़ से शांतनु की आँखें खुल गईं। उसे लगा मानो पहले की तरह माँ ही पूजा घर में घंटियाँ बजा रही हैं। हड़बड़ा कर शांतनु उठ गया। उसने देखा, मधुरिमा अभी तक सो रही थी। गुड़िया वहाँ नहीं थी, उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, उसने पुकारा, “गुड़िया . . .” और भागता हुआ कोने वाले कमरे में चला गया, देखा गुड़िया वहाँ चुपचाप मंदिर के सामने बैठकर नन्ही घंटियाँ बजा रही है और उसकी गोद में वही राम रक्षा स्तोत्र की किताब खुली हुई है। शांतनु को देखकर गुड़िया हौले से मुस्कुराई और शांतनु . . . वह तो किंकर्त्तव्यविमूढ़ रह गया। भरे गले से गुड़िया को सीने से लगाकर बस इतना ही कहा पाया, “माँ . . .!” मधुरिमा जाने कब पीछे आकर खड़ी हो गई थी। वो उन दोनों को देखती रही, चुपचाप, पश्चात्ताप और ग्लानि से उसकी आँखें आँसुओं से भर गईं और उस दिन उसके ग़ुस्सैल और ज़िद्दी स्वभाव की हमेशा के लिए काउंसलिंग हो गई थी।
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