लम्हें
डॉ. सुकृति घोषजीवन के इस रंगमंच में, पल पल दृश्य बदलते हैं
उनमें से कुछ दृश्य हृदय में, सपने बनकर पलते हैं
जैसे झरने का पानी कलकल, लम्हें लम्हें ढलते हैं
कुछ भूले कुछ बिसरे से पल, अवचेतन में रहते हैं
अक़्सर छुपकर मधुरिम लम्हें, मुस्कानों में सजते हैं
प्रीत के रसभीगे से लम्हें, झुकी पलक पर थमते हैं
आँसू बनकर निष्ठुर लम्हें, लोचन की कोर ठहरते हैं
प्रिय विछोह के दुखदाई पल, अंतर्मन को डसते हैं
कुछ लम्हें अपने-अपने से, हाथ थाम कर चलते हैं
स्नेहसिक्त से आशा के पल, जीवन संबल बनते हैं
मन के गुप्त कोष में मंजुल, जगमग लम्हें बसते हैं
रुधिर कणों के संग-संग तन में, लम्हें-लम्हें बहते हैं
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