एक अलौकिक प्रेम कहानी
डॉ. सुकृति घोषएक थी लड़की नाम चंदना, एक था लड़का नाम जगत
उम्र यही बस पाँच छः बरस, आस पास दोनों के घर थे
संग संग दोनों पढ़ते थे, कच्ची उमर के पक्के साथी थे
इक दूजे में जान थी बसती, बचपन साथ गुज़रता था
जग्गू-चंदू बड़े हो रहे, उमर यही कुछ दस या ग्यारह
एक दिवस बस्तों को सँभाले, विद्यालय से लौट रहे थे
सहसा एक फूलों की दुकां पर, चंदू जाकर ठिठकी थी
सुन्दर लाल गुलाबों को वह, ललचाई सी देख रही थी
मोल से तब गुलाब को लेकर जग्गू ने चंदू को दिया था
सुन्दर लाल गुलाब को पाकर, चंदू बेहद आनंदित थी
सुर्ख़ दमकते फूल की ख़ुशबू, चंदा को बेहद पसंद थी
ये घटना थी सोमवार की, चंदा और जग्गा की कहानी
सात दिवस के बाद पुनः जब सोमवार दिन आया था
जग्गू फिर चंदू के लिए एक सुर्ख़ गुलाब ले आया था
बस इसके ही बाद से उसने एक नियम ही बनाया था
हर एक सोमवार को उसको वह गुलाब दे आता था
मौसम मौसम बीत चले थे, चुपके से यौवन आया था
चंदू जग्गू बड़े हो चले, उमर यही कोई सत्रह अठारह
इतने साल बीत चले पर, जग्गू ने नियम न तोड़ा था
गुलाब भेंट की विधि को जग्गू सदा निभा ले जाता था
जग्गू, चंदू बचपन के साथी थे, एक अनोखा रिश्ता था
प्रेम का गहरा बंधन था, पर कभी किसी ने कहा न था
समय का पहिया चलता था, नहीं कभी वह रुकता था
दहलीज़ खड़ा यौवन भी उनको मीठे सपने दे जाता था
पर हाय, प्रारब्ध में उनके, गहन जुदाई की तड़पन थी
मात-पिता ने चंदा की सगाई अन्य कहीं करवाई थी
नैनों में थी प्रेम की बोली, मगर ज़ुबां पर ख़ामोशी थी
अजब थी उनकी प्रेम कहानी, जाने कैसी मजबूरी थी
सोमवार का दिन था जब, चंदू दुल्हन बनकर बैठी थी
सुर्ख़ गुलाब भेंटकर जग्गू अपना सब कुछ खो बैठा था
मौन प्रेम का दर्द छुपाकर, डोली में चंदा विदा हुई थी
अकथ पीर से व्याकुल जग्गू किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था
नए शहर में नवजीवन में चंदा भी अब व्यस्त हो चली
हर एक सोमवार को लेकिन जग्गू की याद सताती थी
समय उड़ा फिर पंख लगाकर, साल बीतने वाला था
कई दिनों से जग्गू-चंदू की, मुलाक़ात भी नहीं हुई थी
एक शाम को, सोमवार को, चंदू बाहर टहल रही थी
तभी अचानक दरवाज़े पर सुर्ख़ गुलाब रखा पाया था
बहुत ख़ुशी से अचरज से उसने वह गुलाब उठाया था
जग्गू की यादों से उस पल, अपने मन को सजाया था
बात भूलकर अगले ही पल चंदू ने ख़ुद को सँभाला था
बात वो आई-गई हो गई, व्यस्त फिर उसका जीवन था
लेकिन अगले सोमवार को उसने, पुनः गुलाब पाया था
फिर हर सोमवार की संध्या यही एक क्रम दुहराया था
बड़ी अचंभित सी चंदा थी, बात समझ नहीं पाती थी
सुर्ख़ गुलाब रखने वाले को, देख कभी नहीं पाती थी
इक दिन मात-पिता से मिलने पीहर अपने पहुँची थी
जग्गू से मिलकर बतियाने को, उसे बड़ी उत्सुकता थी
लेकिन माँ की बातें सुन, अविरल आँसू बह निकले थे
"तेरे ब्याह के बाद ही बिटिया, जग्गू फ़ौजी बन बैठा था
कुछ ही महीने पहले वो, आतंकियों की बलि चढ़ा था
देश की ख़ातिर जीवन देकर, वीर शहीद कहलाया था"
लाल गुलाब का राज़ चंदना मन ही मन में जान गई थी
गहन अलौकिक प्रेम की चंदू स्वयं साक्षी बन बैठी थी
प्राण त्यागकर भी जग्गू, कच्चे धागे से बँधा हुआ था
बस यही अधूरी, अपरिभाषित जग्गू और चंदू कहानी
प्रेम का रिश्ता अजब अनोखा अकथ गूढ़ पहेली जैसा
देशकाल और जन्म से परे, प्रेम है रिश्ता केवल मन का
तन है नश्वर, प्रेम शाश्वत, कभी न माने देह की सीमा
जिसने गहरे प्रेम को पाया, धरती पर ही स्वर्ग को पाया
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