शायद एक शहर

01-09-2025

शायद एक शहर

डॉ. सुकृति घोष (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

ख़ूब घनेरा और चपल सा, कभी उनींदा कभी सजग सा, 
कोई अनोखा अनजाना सा, शायद एक शहर सा है, 
मेरे अंतस बसता है। 
 
कभी धूप में उजियारा सा, कभी तिमिर में गुमसुम सा, 
कभी तो सावन-घन में नम सा, शायद एक शहर सा है, 
मेरे अंतस बसता है। 
 
कहीं अजल रसहीन धरा सा, कहीं सरस उत्साहमग्न सा, 
असमंजित आकुल व्याकुल सा, शायद एक शहर सा है
मेरे अंतस बसता है। 
 
कहीं नवल रक्ताभ ललित सा, कहीं तो जर्जर धूसर सा, 
भूल-भुलैया अजब महल सा, शायद एक शहर सा है, 
मेरे अंतस बसता है। 
 
कभी सुगंधित फुलवारी सा, कभी भयावह बीहड़ वन सा, 
मोहक मायावी इंद्रजाल सा, शायद एक शहर सा है, 
मेरे अंतस बसता है। 
 
कभी तो स्वप्निल प्रीत ऋतु सा, कभी तो रूखे पतझड़ सा
कभी तो बिखरा कभी सहज सा, शायद एक शहर सा है, 
मेरे अंतस बसता है। 

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