संवेदनाएँ
डॉ. सुकृति घोष
वेदनाओं के भँवर में, खो गईं संवेदनाएँ
चित्त के भ्रम बंधनों में, खो गईं हैं चेतनाएँ
लालसा के इस नगर में, खो गईं सारी दिशाएँ
द्वंद्व के उपजाऊ वन में, खो गईं सब मित्रताएँ
तमस की गहरी निशा में, खो गईं हैं तारिकाएँ
वासनाओं की गली में, खो गईं सब प्रेमिकाएँ
तन के नश्वर पिंजरों में, खो गईं हैं मनुजताएँ
अंतसों की कलुषता में, खो गईं हैं मधुरताएँ
नीर से छलके नयन में, खो गईं सब यातनाएँ
असत के गहरे कुँए में, खो गईं निश्छल सदाएँ
वेदनाओं के भँवर में, खो गईं संवेदनाएँ
चित्त के भ्रम बंधनों में, खो गईं हैं चेतनाएँ
नि:सीम भौतिकवादिता में, खो गईं हैं आत्माएँ
कपट के कंटक डगर में, खो गईं हैं सरलताएँ
बंद होकर पुस्तकों में, खो गईं कविता कथाएँ
शोर के बिखरे स्वरों में, खो गईं सब गीतिकाएँ
आडम्बरों की व्यर्थता में, खो गईं लावण्यताएँ
अहम् की प्रतियोगिता में, खो गईं निश्चिंतताएँ
आधुनिकता की लहर में, खो गईं सद्भावनाएँ
अश्लीलता के जंगलों में, खो गईं हैं सभ्यताएँ
वेदनाओं के भँवर में, खो गईं संवेदनाएँ
चित्त के भ्रम बंधनों में, खो गईं हैं चेतनाएँ
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