फिर क्यों?
डॉ. सुकृति घोष
विपुल नीर का दृश्य मनोरम,
सागर की लहरों में चंचल, तटिनी की मौजों में कलकल
निर्झरणी से झर-झर पल-पल, सावन भी तो क्षीण नहीं है
फिर क्यों ख़ाली मन की गगरी, जैसे कोई सूनी नगरी
मंजुल उपवन दृश्य मनोरम,
रक्त श्वेत पुष्पों का संगम, सौरभ का कण-कण में विचरण
मधुकर के गीतों का गुंजन, कुसुमाकर भी क्षीण नहीं है
फिर क्यों नीरव मन फुलवारी, जैसे कोई बन्ध्या नारी
उन्नत पर्वत दृश्य मनोरम,
रजत श्याम रंगों का मिश्रण, धूप छाँव का अद्भुत नर्तन
गगन को छूते तुंग हिमालय, गौरव भी तो क्षीण नहीं है
फिर क्यों बौनी मन की शक्ति, जैसे कोई चित्त विरक्ति
धवल चाँदनी दृश्य मनोरम,
नभ में झिलमिल टिमटिम तारे, रजनीकर भी न्यारे न्यारे
अमृत-अमृत सोम-रश्मियाँ, प्रेम मधु भी क्षीण नहीं है
फिर क्यों काला मन का आँगन, जैसे कोई मैला दामन
सघन जगत का दृश्य मनोरम,
माया की है जगमग उलझन, मोहक चारु चंचल चितवन
अनगिन रिश्ते नाते बंधन, कोलाहल भी क्षीण नहीं है
फिर क्यों गुमसुम मन की दुलहन, जैसे कोई रूठी विरहन
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