कसक
डॉ. सुकृति घोष
बसंत का आगमन हो चुका था, शीत ऋतु अपने अंतिम चरण पर थी, हवा में हल्की सी ठंडक अभी भी बाक़ी थी, साँझ ढलने लगी थी। सुष्मिता छत पर बने हुए गेस्ट रूम की उस बड़ी से खिड़की के सामने आराम कुर्सी पर बैठकर, खिड़की से बाहर एकटक निहार रही थी। आज घर में उत्सव जैसा माहौल था, क्योंकि सुष्मिता अपने दोनों बच्चों के साथ मायके आई हुई थी। माँ-बाबा और भैया-भाभी सबका अपरिमित प्रेम सुष्मिता को प्राप्त था। भाभी ने जैसे ही संध्या आरती करते हुए शंख बजाया, सुष्मिता की तंद्रा टूटी। दूर से आती हुई शंख की पावन ध्वनि सुष्मिता के हृदय में उतरती चली गई, उसने भी हाथ जोड़कर सिर झुका लिया। मायके आने पर सुष्मिता का गेस्ट रूम में आना और उस आराम कुर्सी पर बैठकर, अपने बचपन और किशोरावस्था की नादानियों को याद करना उसका सबसे प्रिय शग़ल था।
उसके सुखी वैवाहिक जीवन को लगभग चौदह वर्ष बीत चुके थे। लेकिन आज भी उसके ज़ेहन में बीती हुई सारी बातें इस तरह ताज़ा थीं मानो कल की ही बात हो। उस दिन भी सुष्मिता, अतीत के पन्ने पलटती हुई, बीस बरस पीछे चली गई थी, जब वह किशोरावस्था की दहलीज़ पार कर यौवन की सीढ़ी पर क़दम रखती हुई, महज़ अठारह साल की थी।
सुष्मिता के पिता प्रोफ़ेसर थे साथ ही एक कवि तथा उपन्यासकार भी थे, अंचल में उनका काफ़ी नाम था। साधन संपन्न घर-परिवार में किसी चीज़ की कोई कमी न थी। उस दिन रविवार की अलसाई हुई सुबह थी। माँ-बाबा की लाड़ली और अपने भाई की दुलारी सुष्मिता अपने बग़ीचे में थी। आज कौन-सा फूल ताज़ा खिल रहा है, कौन-सा पेड़ कितना बढ़ रहा है, कहीं कोई पेड़ मुरझा तो नहीं रहा, उसे यह सब देखना बहुत भाता था। अचानक घर के सामने एक रिक्शा आकर रुका। ऊँचे पूरे क़द के, गेहुँआ रंगत वाले एक आकर्षक, युवा व्यक्ति ने उतरकर ऑटो वाले को रुपए थमाए और सुष्मिता की ओर देखकर बड़े की आदर से कहा, “मैं सात्विक भारद्वाज हूँ, मुझे श्रीमान् देवाशीष मुखर्जी जी से मिलना है, वो घर पर हैं क्या?” देवाशीष मुखर्जी सुष्मिता के पिता थे। सुष्मिता कुछ कहती इससे पहले ही उसके पिता ने आकर बड़ी ही गर्मजोशी से सात्विक का स्वागत किया और उन्हें बैठक में ले गए।
सात्विक, देवाशीष जी के बचपन के एक मित्र का बेटा था, किसी सरकारी दफ़्तर में कार्यरत था और लेखन के क्षेत्र में नाम कमाने के सपने देखता था। अपने पिता के कहने पर, लेखन के गुर सीखने के लिए सुष्मिता के पिता देवाशीष के पास आया था।
“सात्विक को ऊपर वाले गेस्ट रूम में ठहराने की व्यवस्था करो, सुषमा, बेटा माँ की हेल्प कर दो, मेरे क़रीबी मित्र का सुपुत्र है, कुछ दिन यहीं रुकेगा।” बाबा ने अंदर आकर हमें कहा था। “अचानक?” माँ ने थोड़ा झुँझलाकर दबी ज़ुबान से कहा था। लेकिन बाबा के आदेश को सिर आँखों पर रखकर सुष्मिता सीढ़ियाँ लाँघती हुई दौड़कर गेस्ट रूम पहुँच गई थी। जाने किस सम्मोहन के वशीभूत, वह जल्दी-जल्दी गेस्ट रूम को ठीक करने में लग गई थी।
सात्विक रोज़ बाबा के पास बैठकर कुछ पढ़ता-लिखता। सुष्मिता से भी यदा-कदा बातें होती रहती। ”तुझसे कितना बड़ा है बेटा, सात्विक दा बोला कर।” माँ टोकती। लेकिन सुष्मिता नहीं मानती। सुष्मिता ने सात्विक के सत्कार का ज़िम्मा स्वतः ही अपने ऊपर ले लिया था। सुष्मिता अभी ग्रेजुएशन के प्रथम वर्ष में ही थी, नई उम्र, नई उड़ान, नए सपने और नया उत्साह . . . बस यही सुष्मिता की ख़ुशनुमा, मासूम-सी दुनिया थी। अट्ठाइस-उन्नतीस साल का सात्विक उम्र में सुष्मिता से उम्र में लगभग दस-ग्यारह साल बड़ा था। पाँच बहनों का बड़ा भाई, घर की स्थिति कुछ ख़ास ठीक नहीं थी। बहनों की और घर की ज़िम्मेदारियों को सँभालने के लिए उसने एक दफ़्तर में सामान्य सी नौकरी कर ली थी, लेकिन संवेदनशील सात्विक का मन लेखन में अधिक लगता था। जीवन की जद्दोजेहद से जूझते हुए भी सात्विक की इच्छा लेखन के क्षेत्र में ही आगे बढ़ने की थी। राजनीति, अर्थव्यवस्था, साहित्य, सिनेमा, विज्ञान आदि सभी विषयों पर सात्विक अच्छी ख़ासी दख़ल रखता था। सात्विक और सुष्मिता अक़्सर ही छत की मुँडेर पर बैठे-बैठे बतियाते। उसकी अपनी स्वतंत्र और परिपक्व विचारधारा थी, जब वह सधे हुए शब्दों में अपनी गहरी आवाज़ में बोलता तो सुष्मिता का अल्हड़ मन भी एकाग्रता से उसकी बातों को आत्मसात करने में लग जाता। सुष्मिता, सात्विक की बातों को मन्त्रमुग्ध होकर सुनती ही रहती, उसे लगता कि समय का चक्र बस यहीं थम जाए और वह जीवन भर यूँ ही सात्विक के साथ बैठी रहे। सुष्मिता के मन उपवन में खिला-खिला रंग-बिरंगा बसंत आ गया था, जिसकी मादक ख़ुश्बू से उसका तन मन महका-महका-सा रहने लगा था।
सुष्मिता कई बार सात्विक के मन की थाह लेने की नाकाम कोशिशें करती रहती। ऐसे ही एक दिन बाबा के स्टडी रूम में सात्विक की एक नोटबुक छूट गई। सुष्मिता की नज़र पड़ी तो उसने चुपके से नोटबुक उठाई और अपने कमरे में जाकर देखने लगी। कुछ कविताएँ, कुछ लेख, कुछ मुक्तक बस यही था उस नोटबुक में। सुष्मिता ने कुछ कविताएँ पढ़ीं, सभी मानो दर्द में डूबी निराशावादी, टूटे दिल से लिखी हुई कविताएँ थी। अगले दिन सात्विक सारा दिन अपनी नोटबुक को ढूँढ़ता रहा था और न पाकर उसने सुष्मिता से पूछा था। “मेरे पास है, मैंने बाबा की स्टडी टेबल पर रखी देखी तो उठा ली थी। मैंने कुछ कविताएँ पढ़ीं, वे सभी इतनी दर्द भरी क्यों है सात्विक? जैसे किसी ने जीवन से हताश होकर लिखी हों। आप अच्छी कविताएँ नहीं लिखते?” सुष्मिता ने बेहद मासूमियत से पूछा।
जवाब में सात्विक मुस्कुरा कर रह गया। कुछ देर बाद धीरे से गर्दन झुका कर कहा, “लिखी हैं, कुछ अच्छी कविताएँ भी लिखी हैं। तुम पढ़ोगी?”
“हाँ ज़रूर!” कहते हुए सुष्मिता की आँखें चमक उठी। अगले दिन सात्विक ने एक नीली जिल्द वाली नोटबुक सुष्मिता को थमाई और मुस्कुरा कर बोला, “पढ़ कर बताना कविताएँ कैसी हैं।”
उस दिन सुष्मिता दिन भर उस नोटबुक पर लिखी कविताओं को पढ़ती रही। बेहद कोमल, मधुर, प्रीत की भावनाओं में पगी, सुंदर शब्दावली में लिखी हुई कविताएँ थी। हर एक कविता मानो सुष्मिता की आँखों की राह से होती हुई उसके दिल में समा गई। उसने हर एक कविता को जाने कितनी ही बार पढ़ा। उसे लगने लगा कि ये सारी कविताएँ सात्विक ने उसी के लिए लिखी हैं। उस नोटबुक को आलिंगन करके सुष्मिता आँखें बंद करके लेटी रही। सोने की बहुत कोशिश की लेकिन नींद को न आना था तो न आई। रात के एक बज चुके थे। अचानक सुष्मिता के मन में जाने क्या आया कि वह उस नोटबुक को थामे दबे पाँव सीढ़ियाँ चढ़ती हुई छत पर बने उस गेस्ट रूम पर पहुँच गई जहाँ सात्विक का डेरा था। दरवाज़े पर उसने हल्की-हल्की थाप दी। कुछ देर बाद सात्विक ने दरवाज़ा खोला तो सुष्मिता को देखकर उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गई, “अरे क्या हुआ इतनी रात को तुम यहाँ? सब ठीक तो है सुष्मिता?” सात्विक ने पूछा था। दो पल को सुष्मिता नज़रें झुका कर खड़ी रही, फिर धीरे से बोली, “सात्विक ये सारी कविताएँ आपने मेरे लिए लिखी है न?” यह सुनकर सात्विक एकदम से हड़बड़ा गया फिर अपने आप को संयत करते हुए लगभग डाँटते हुए सुष्मिता से कहा, “इतनी रात को यहाँ तुम्हें किसी ने देख लिया तो आफ़त आ जाएगी। तुम अभी यहाँ से जाओ और आराम करो। तुम्हें यहाँ इतनी रात को नहीं आना चाहिए, सुष्मिता। तुम बच्ची नहीं हो, जो तुम्हें यह सब सिखाया जाए।” यह सुनकर सुष्मिता की आँखों में आँसू छलक उठे। अपमान का कड़वा घूँट हलक़ में जैसे फँस गया। नोटबुक को वहीं सात्विक के हाथों में थमाकर वह यंत्रवत् अपने कमरे में लौट गई और रात भर अपने आँसुओं से तकिए को भिगोती हुई कब सो गई उसे पता नहीं चला।
सुबह सुष्मिता को उठने में काफ़ी देर हो गई। लेकिन उठते ही उसे पता चला कि सात्विक अचानक सुबह सवेरे ही वापस लौट गया “उसे अचानक कोई काम आ गया था” बाबा बता रहे थे। सुष्मिता का दिल बैठने लगा ‘आप मेरी वजह से चले गए, है न सात्विक? बता कर तो जाते।’ सुष्मिता ने बुदबुदाकर कहा था। उसके बाद कितने ही दिन तक सुष्मिता अपराध बोध से ग्रसित अपने टूटे हुए दिल को सँभालती रही थी। ‘सात्विक इस तरह अचानक क्यों चला गया? कह कर तो जाता।’ सुष्मिता अपने आप से ही सवाल करती। सुष्मिता अक़्सर गेस्ट रूम में जाती, उस आराम कुर्सी पर चुपचाप बैठी रहती जिसपर सात्विक बैठता था, सामने रखी काँच की किवाड़ों वाली बुक शेल्फ़ को निहारती, कभी खिड़की से बाहर झाँकती और सूनी आँखों से वापस लौट आती।
साल दर साल बीतते चले गए। समय का दरिया निरंतर बहता रहा और आहिस्ता-आहिस्ता अपने साथ बहा ले गया सुष्मिता का दर्द, उसके आँसू और उसका अपराध बोध और बदले में वापस दे गया उसके अधरों पर वही चिरपरिचित मीठी मुस्कान, उसकी आँखों में नटखट शरारतें और उसका अल्हड़पन। लेकिन बंद सीप में मोती की तरह सुष्मिता के मन के किसी कोने में एक टीस दबी रह गई, वो अक़्सर सोचती ‘सात्विक बिना कहे, बिना बताए चुपके से क्यों चला गया। क्या कवि हृदय ऐसा होता है? इतना कठोर, इतना निर्दय!’
सुष्मिता की पढ़ाई पूरी हो गई, उसका विवाह भी हो गया। सुष्मिता अब दो बच्चों की माँ थी। विवाह को चौदह बरस बीत चुके थे। अपनी सुखी दांपत्य जीवन में रची बसी सुष्मिता यदा-कदा मायके जाती, माँ-बाबा भैया-भाभी के साथ बतियाती, चहकती, गपियाती, बच्चों के साथ खेलती . . . लेकिन गेस्ट रूम में जाकर उस आराम कुर्सी पर बैठना कभी नहीं भूलती, जिस पर सात्विक अक़्सर बैठा करता था। ज़ख़्म भर जाता है, लेकिन निशान छोड़ जाता है। बस ऐसा ही एक निशान सुष्मिता के मन में भी बाक़ी रह गया था, एक कसक, एक बड़ा-सा प्रश्न चिह्न, एक बड़ा-सा “क्यों?”
आज भी सुष्मिता उसी आराम कुर्सी पर बैठी थी। उसके मन में जाने क्या आया कि वह काँच के किवाड़ों वाले उसे बुक्शेल्फ़ के पास चली गई और उसे खोल लिया। निर्विकार भाव से किताबों को देखती रही। अचानक उसकी आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गईं, जब उसने वही नीली जिल्द वाली सात्विक की कविताओं वाली नोटबुक को किताबों के बीच में दबा हुआ देखा। कौतुहूल से भरकर उसने तुरंत उस नोटबुक को खींच लिया पहला पन्ना पलटते ही एक काग़ज़ मिला। उसने खोलकर देखा, एक चिट्ठी थी, सुष्मिता के नाम की।
“प्रिय सुष्मिता, तुम्हारे निश्चल प्रेम और स्वार्थहीन व्यवहार से मैं अभिभूत हूँ, इसका ॠण मैं जीवन-भर नहीं चुका पाऊँगा। सुष्मिता मैं एक साधारण परिवार से हूँ। घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। मुझ पर बहुत सारी ज़िम्मेदारियाँ है। तुमने अब तक केवल ख़ुशियाँ ही देखी हैं। तुम जीवन की कठिन राहों से अवगत नहीं हो और मैं चाहता हूँ कि तुम सारा जीवन ऐसी ही रहो, मस्तमौला और चिंतामुक्त। तुम्हें कभी किसी चीज़ का कष्ट न हो। सुष्मिता मैं तुम्हें बहुत पसंद करता हूँ और शायद प्यार भी, लेकिन मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ बँधकर तुम भी ज़िम्मेदारियों के बोझ तले अपनी हँसी भूल जाओ। सुष्मिता मुझे यहाँ से जाना होगा, क्योंकि अगर मैं यहाँ ज़्यादा दिन रहा तो हमारा रिश्ता प्रगाढ़ होता जाएगा। इसलिए मैंने आज ही जाने का फ़ैसला लिया है। मुझे माफ़ कर देना सुष्मिता, क्योंकि मैं तुम्हें बताकर नहीं जा पाऊँगा, मैं तुम्हारी आँखों में उदासी नहीं देख सकता। मुझसे वादा करो कि तुम हमेशा ख़ुश रहोगी तुम्हारी ख़ुशी के लिए ही मैं यहाँ से जा रहा हूँ। और हाँ, वो सारी कविताएँ मैंने तुम्हारे लिए ही लिखी हैं।” पत्र को पढ़ते-पढ़ते सुष्मिता की आँखें आँसुओं से धुँधली हो गई। ‘क्या कवि हृदय ऐसा होता है, इतना संवेदनशील, इतना विशाल कि अपने साथी के सुख की ख़ातिर प्यार का ही बलिदान दे दे।’ सुष्मिता मन ही मन सोच रही थी आज उसके दर्द पर मानो किसी ने मरहम का ठंडा फाहा रख दिया था। सात्विक के प्रति बेहद सम्मान की भावना के साथ उसने आँखें बंद कर ली थीं।
1 टिप्पणियाँ
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आपकी कसक कहानी बहुत ही रोचक और सराहनीय है आप भविष्य में भी ऐसी महत्त्वपूर्ण कहानियों के जरिए मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी। आपको बहुत बहुत बधाई
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