एकादशी व्रत का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण 

15-05-2024

एकादशी व्रत का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण 

डॉ. सुकृति घोष (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

“व्रत और उपवास” भारतीय जनमानस में बहुत गहरे गुँथे हुए शब्द है। व्रत का अर्थ होता है, संकल्प लेना अर्थात् अपने मन और शरीर की आवश्यकताओं को नियंत्रित करते हुए स्वयं को संयमित करना। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति यह सोचे कि वह किसी विशेष दिन केवल फल ही ग्रहण करेगा अथवा वह परनिंदा नहीं करेगा तो यह व्रत कहलाता है। इस तरह कई प्रकार के व्रत हो सकते हैं। उपवास शब्द भी दो शब्दों से मिलकर बना है, उप और वास। उप अर्थात् पास और वास अर्थात् रहना। उपवास का तात्पर्य है, ईश्वर के पास रहना। हमारी संस्कृति में व्रत और उपवास दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि अन्न से ही हमारे मन में संस्कारों की उत्पत्ति होती है, तभी तो ऋषि मुनिगण अन्न त्याग कर कंद-मूल, फल इत्यादि खाकर ही तपस्या में रत रहते थे। अन्न का त्याग करने से चित्त की शुद्धि होती है और इस तरह की गई उपासना हमें ईश्वर के समीप लाने में सक्षम होती है। तभी तो कहा जाता है कि व्रत के साथ की गई उपासना से मनोकामनाएँ पूर्ण होती है क्योंकि इस अवस्था में चित्त अधिक एकाग्रता से परम शक्ति से स्वयं का जुड़ाव महसूस करता है। अतः जब व्यक्ति अन्न-जल के त्याग करने का संकल्प लेकर, अपने चित्त के सभी विकारों को नियंत्रित रखते हुए एकाग्र होकर पवित्र भक्ति भावना के साथ ईश्वर के चरणों के आगे समर्पित होकर उपासना में लीन होता है तब वह सही अर्थों में व्रत और उपवास करता है। हमारे शरीर में कुल ग्यारह इंद्रियाँ है, जिनमें से पाँच ज्ञानेंद्रिय, पाँच कर्मेंद्रियाँ और एक मन। इन सभी इंद्रियों को नियंत्रित करते हुए ईश्वर की उपासना करना ही व्रत और उपवास का प्रमुख लक्ष्य है। 

आयुर्वेद में भी व्रत का अत्यधिक महत्त्व बताया गया है। आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार, व्रत करने से शरीर के पाचन तंत्र को आराम मिलता है तथा शरीर की शुद्धि होती है। यह सत्य सर्वविदित है कि अलग-अलग तिथियाँ चंद्रमा की सूर्य से तुलनात्मक दूरी पर आधारित होती हैं। चंद्रमा हमारे मन का कारक है अतः अलग-अलग तिथियों पर हमारे मन की अवस्थाएँ भी अलग-अलग होती हैं, इसलिए हमारे ऋषियों ने अलग-अलग तिथियों पर किए गए व्रत का महत्त्व भी अलग-अलग बताया है। अन्न का पूर्णतः त्याग करके केवल फलों को ग्रहण करके या फलों का रस लेकर व्रत किया जा सकता है। इस तरह व्रत करने से ही शारीरिक शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। कई लोग व्रत में विभिन्न प्रकार के व्यंजन लेते रहते हैं जो किसी भी प्रकार से उचित नहीं है, वास्तव में इससे किसी भी प्रकार का लाभ सम्भव नहीं। व्रत वही होता है जिसमें व्यक्ति बहुत कम सात्विक आहार ग्रहण करके अपना अधिक से अधिक समय ईश्वर भक्ति में समर्पित करता है। 

हमारी वैदिक सभ्यता और संस्कृति में एकादशी व्रत का अत्यधिक महत्त्व बताया गया है। चंद्रमा एक राशि को सवा दो दिन में पार करता है तथा सूर्य को एक राशि को पार करने में लगभग एक माह का समय लगाता है। अतः चंद्रमा अत्यधिक तेज़ गति से चलता है इस प्रकार जब चंद्रमा और सूर्य एक स्थिति में होते हैं तो अमावस्या होती है तथा जब चंद्रमा और सूर्य एक दूसरे से 180 डिग्री के अंतर पर होते हैं तो वह पूर्णिमा होती है। एक महीने में लगभग पंद्रह दिन ऐसे होते हैं जब चंद्रमा धीरे-धीरे सूर्य के निकट आता है, वह कृष्ण पक्ष कहलाता है तथा लगभग पंद्रह दिन ऐसे होते हैं जिनमें चंद्रमा सूर्य से दूर जाता है वह शुक्ल पक्ष कहलाता है। अतः अमावस्या की ओर अग्रसर चंद्रमा कृष्ण पक्ष का चंद्रमा होता है जिसमें उसकी कलाएँ शनैः शनैः घटती जाती हैं तथा पूर्णिमा की ओर अग्रसर चंद्रमा शुक्ल पक्ष का चंद्रमा कहलाता है जिसमें उसकी कलाएँ क्रमशः बढ़ती जाती है। अमावस्या से चार दिन पहले कृष्ण पक्ष की एकादशी तथा पूर्णिमा से चार दिन पहले शुक्ल पक्ष की एकादशी आती है। 

हमारे शरीर की भौतिक संरचना में डीएनए की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ये डीएनए दो प्रकार के होते हैं एक कोडिंग डीएनए दूसरा नोन कोडिंग डीएनए। कोडिंग डीएनए में हमारी शारीरिक संरचना से संबंधित कई तरह की जानकारियाँ समाहित रहती है। कोडिंग डीएनए हमारे शरीर के सेल्स में प्रोटीन का निर्माण करने में सहायक होता है। लेकिन नोन कोडिंग डीएनए इस तरह की कोई भी जानकारी अपने अंदर नहीं रखता इसलिए इन्हें जंक डीएनए कहा जाता है। लेकिन जंक डीएनए भी शरीर में एक महत्त्वपूर्ण कार्य करता है, वह कोडिंग डीएनए के अंदर स्थापित जानकारियों की सुरक्षा करता है। कोडिंग डीएनए की सहायता से हमारे शरीर के सेल्स का विस्तार होता है। नई खोज के अनुसार जैसे ही हमारे शरीर के सेल्स द्विगुणित होते हैं, कोडिंग डीएनए भी दो गुना हो जाते हैं और इसी समय जंक डीएनए का एक हिस्सा टूटकर बिखर जाता है। लेकिन इस तरह जंक डीएनए का टूट कर बिखरना हमारी आयु को कम कर देता है। अर्थात् जितनी बार हमारे सेल्स का दो गुणा विस्तार होगा उतनी ही बार जंक डीएनए का एक हिस्सा टूटकर बिखर जाएगा और हमारी आयु को कम कर देगा। अतः लंबी आयु प्राप्त करने के लिए तथा लंबे समय तक युवा रहने के लिए जंक डीएनए का कम से कम क्षरण होना आवश्यक है। यह भी पाया गया कि जो लोग तामसिक भोजन करते हैं तथा तामसिक जीवन शैली अपनाते हैं, उनके जंक डीएनए का ज़्यादा हिस्सा टूट कर बिखरता है। इसके विपरीत सात्विक भोजन तथा सात्विक जीवन शैली अपनाने वाले व्यक्ति के जंक डीएनए का क्षरण कम होता है क्योंकि ऐसा भोजन करने से सेल्स की विस्तार गति धीमी हो जाती है। अतः हम जितनी ज़्यादा कैलोरी लेते हैं, उतनी ही जल्दी हमारे सेल्स का विस्तार होता और उतना ही अधिक हमारा जंक डीएनए टूट कर बिखरता है। यह भी पाया गया कि यदि सात्विक जीवन शैली के साथ पंद्रह दिन के अंतराल में छत्तीस घंटे कम कैलोरी पर गुज़ारे जाएँ अर्थात् व्रत किया जाए तो जंक डीएनए के क्षरण को कम किया जा सकता है। हमारे विद्वान् ॠषि मुनि शायद इस बात को वर्षों पूर्व ही जान चुके थे, तभी तो वर्षों पूर्व लिखे गए हमारे शास्त्रों में सात्विक भोजन पर ज़ोर दिया गया था। हमारे ज्ञानी शास्त्रज्ञों ने शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की एकादशी में व्रत करने की महत्ता समझाई थी। एकादशी व्रत पूरे छत्तीस घंटे का होता है, क्योंकि यह व्रत दशमी के सूर्यास्त से प्रारंभ होता है अर्थात् उस समय के बारह घंटे तथा एकादशी के चौबीस घंटे अतः कुल छत्तीस घंटे। हमारे शास्त्रों में एकादशी का दिन भी एक विशेष कारण से चुना गया है। कहा गया है, “यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे”, जो शरीर में है वही ब्रह्मांड में भी है। हमारी पृथ्वी में लगभग 70% हिस्सा पानी है इसी प्रकार हमारे शरीर का भी लगभग 70% हिस्सा पानी ही है। जिस प्रकार समुद्र में ज्वार तथा भाटा दोनों ही चंद्रमा से प्रभावित होते हैं, ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर का जलीय हिस्सा भी चंद्रमा से ही प्रभावित होता है। चंद्रमा मन का कारक है, अतः मन की भावनाएँ, इच्छाएँ, उद्वेग, अवसाद इत्यादि भी चंद्रमा से ही प्रभावित होते हैं। समुद्र में ज्वार तथा भाटा दोनों ही एकादशी तिथि से ही अधिक दृष्य होते हैं। एक शोध के अनुसार हम जो भी भोजन ग्रहण करते हैं उसके चौथे दिन हमारे दिमाग़ पर उसका असर पड़ता है। अतः एकादशी को लिए गए भोज्य पदार्थों का प्रभाव हमारे दिमाग़ पर तथा मन पर उसके चौथे दिन अर्थात् पूर्णिमा और अमावस्या को पड़ता है। इसलिए यदि हम एकादशी के दिन व्रत करें तथा केवल कम मात्रा में सात्विक भोजन ही फलाहार के रूप में ग्रहण करें तो उसका सात्विक प्रभाव पूर्णिमा व अमावस्या को पड़ेगा। जिससे हमारी मानसिक भावनाएँ नियंत्रित रहेंगी। इस प्रकार एकादशी का व्रत करने से हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के साथ साथ मानसिक स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा। इन सब वैज्ञानिक तथ्यों को पूर्व से ही जानने के कारण हमारे पूर्वजों ने तथा ऋषि मुनियों ने एकादशी व्रत का इतना अधिक महत्त्व बताया है। 

एकादशी व्रत को लेकर बड़ी ही रोचक कथाएँ कही जाती हैं। भगवान विष्णु की अनेक लीलाओं में से एक लीला के अनुसार एक बार भगवान विष्णु मूर नामक एक असुर से भयंकर युद्ध कर रहे थे। युद्ध के बीच भगवान जब कुछ देर सुस्ताने के लिए रुके, तभी उनके दिव्य शरीर में से एक दिव्य देवी प्रकट हुई और उन्होंने उस असुर का क्षण भर में ही विनाश कर दिया। तब भगवान ने उनसे पूछा “हे देवी! आप कौन हैं?” तब उन्होंने कहा, “भगवन्, मैं तो आपकी करुणा से उत्पन्न आपकी ही एक दासी हूँ।” उनके ऐसा कहते ही भगवान विष्णु जी ने उन्हें एकादशी नाम से पुकारा तथा उन्हें वरदान दिया कि “जो भी व्यक्ति एकादशी के दिन तीर्थ यात्रा करेगा या सात्विक विचारों का पालन करते हुए ईश्वर उपासना में रत रहेगा उसे पर मेरी कृपा दृष्टि सदैव रहेगी।” चूँकि ईश्वर अपने भक्तों पर सदैव कृपा करते हैं, अतः अन्य शब्दों में इस दृष्टांत की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि ईश्वर ने जातकों पर अपनी करुणा दृष्टि रखते हुए एकादशी व्रत करने के लिए प्रेरित किया है। 

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवान विष्णु यमलोक के पास से गुज़र रहे थे। यमलोक में पापपुरुष सभी पापियों को सज़ा दे रहा था और सारे पापी गण कष्ट से चिल्ला रहे थे यह सब देखकर भगवान श्री विष्णु का हृदय दया से भर गया और उनकी उस करुणा से ही एक देवी का प्रादुर्भाव हुआ जिसका नाम एकादशी (एकदासी) था। भगवान ने उन्हें वरदान दिया कि जो भी एकादशी का दिन सात्विक रूप से रहकर ईश्वर के नाम का स्मरण करेगा उनके पापों का संहार होगा। तब पाप पुरुष ने कहा कि, “हे ईश्वर इस तरह तो सभी पापों का विनाश हो जाएगा, तब मेरा काम क्या बचेगा?” तब भगवान विष्णु ने कहा, “एकादशी के दिन तुम अन्न में वास करना, जो भी अन्न ग्रहण करेगा वह पापी बनेगा।”

दरअसल हम जो भी अन्न ग्रहण करते हैं वे सभी हमारे शरीर में पानी को संगृहीत करने का कार्य करते हैं, जिसके कारण हमारे शरीर में से विषाक्त पदार्थ भी उस पानी के साथ ही संगृहीत हो जाते हैं और बाहर नहीं निकल पाते हैं। तभी तो व्रत में सर्वप्रथम अन्न का त्याग करके फल लेने के लिए कहा जाता है, क्योंकि इस विधि से शरीर के विषाक्त पदार्थ शरीर से बाहर आसानी से निकल पाते हैं। इस तरह शरीर की शुद्धता से मानसिक शुद्धता भी प्राप्त होती है और हमारे विचारों में सात्विकता आती है। इस स्थिति में की गई ईश्वर की उपासना हमें आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाती है। 

इस प्रकार एकादशी व्रत हमें शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हुए हमें आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर करने में सहायक है। 

1 टिप्पणियाँ

  • 22 May, 2024 12:09 PM

    इस आलेख को पढ़कर एकादशी व्रत व उपवास के पीछे जुड़े वैज्ञानिक तथ्यों की नयी व अद्भुत जानकारी प्राप्त हुई। धन्यवाद। व्रत व उपवास के संदर्भ में यह भी सुना है कि हमारे पुरातन शास्त्रों के अनुसार सप्ताह के एक दिन लवण (नमक) का त्याग, एक दिन मीठा, एक दिन अम्लीय (खटाई) इत्यादि का त्याग कर देने से हमारे शरीर व मन दोनों हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। और आधुनिक विज्ञान वही खोज करके आज हमें सूचित कर रहा है। साधुवाद।

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