अस्फुट

01-07-2022

अस्फुट

डॉ. सुकृति घोष (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

ट्रेन में सामान जमाकर, बैठकर दो घड़ी चैन की साँस भी नहीं ले पाई थी कि सामने वाली बर्थ से किसी ने कहा, “मिहिका बसु उर्फ़ मिही हो ना?” अप्रत्याशित रूप से अपना नाम पुकारे जाने पर अचकचाकर सामने देखा, एक सज्जन मेरी ओर देखकर बड़ी ही आत्मीयता से मुस्कुरा रहे थे।

“जी! आप मुझे जानते हैं?” 

“हाँ, क्यों तुम भूल गई? पहचान नहीं पाई?” 

मेरा दिमाग़ तेज़ी से दौड़ने लगा, कौन हो सकता है ये शख़्स? देहरादून में पढ़ाई के दौरान मेरे सहपाठी अक़्सर मुझे ‘मिही’ कहकर बुलाते थे, वहीं से कोई होगा। देहरादून छोड़े हुए सत्ताइस साल गुज़र चुके थे, उसके बाद तो मैं मिहिका मैम या बसु मैम ही पुकारी जाती हूँ। तभी सज्जन बोल पड़े “मैं मयंक माथुर, देहरादून, याद आया?”

 उनके इतना कहते ही मैं किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उनकी ओर देखने लगी, दो घड़ी उपरांत होश सँभालकर कहा, “ओह! भूलने का तो सवाल ही नहीं उठता मगर तुम इतना बदल गए हो कि पहचान ही नहीं पाई।” मयंक सचमुच बहुत बदल गया था, सत्ताइस साल पहले की उसकी छरहरी देह और चेहरे पर अच्छा ख़ासा वज़न चढ़ गया था, घने घुंघराले बालों ने भी साथ छोड़ दिया था। मेरी बात सुनकर मयंक मुस्कुरा उठा। मयंक को अगले स्टेशन पर उतरना था, मन में एक अजीब सी सुगबुगाहट लिए हमने फ़ोन नंबरों का आदान प्रदान किया, मुझसे देहरादून आने का वादा लेकर मयंक उतर गया था। 

बर्थ पर लेटते ही मेरी आँखों पर सत्ताइस साल पहले का देहरादून पूरे ताम-झाम के साथ आकर पसर गया। कॉलेज कैम्पस, हमारा होस्टल, मित्र मंडली, कैंटीन, स्नेह सम्मेलन, स्पोर्ट डे और जाने कितनी सारी बातें और कितनी सारी यादें। देहरादून में बिताए वो दो साल मेरी यादों के ख़जाने के सबसे बेशक़ीमती नगीने थे। मैं होस्टल में रहती थी और मेरा सहपाठी मयंक डे स्कॉलर था। उसका घर हमारे होस्टल से ज़्यादा दूर नहीं था। असीमित नीलांबर में स्वच्छंद विचरण करने वाले श्वेत मेघपुंजों की भाँति, हम सबके सपने और उच्चाकांक्षाएँ भी कठोर धरातल से दूर गगनचुंबी और सीमातीत थी। मयंक वाद-विवाद और भाषण प्रतियोगिताओं में अक़्सर भाग लिया करता था और हमेशा जीतता भी था। आत्मविश्वास से परिपूर्ण उसका ओजस्वी वक्तव्य मुझे हमेशा तन्मय कर देता था। जिस दिन उसकी प्रतियोगिता होती, मैं अपना लकी आसमानी सलवार सूट पहनती, अपने लम्बे घने बालों की ढीली सी चोटी करती और मयंक के जीतने की दुआएँ माँगती, मुझे लगता था कि मेरे आसमानी सूट पहनने से मयंक जीत जाएगा। मयंक अक़्सर कहता, “तुम्हारा आसमानी सूट बहुत सुन्दर है।” 

“और मैं?” मेरे पूछने पर मुझे चिढ़ाते हुए कहता, “हम्म्म . . . सोचकर बताऊँगा।”

हम होस्टलर्स जब-तब मयंक के घर जा धमकते थे। मयंक के साथ-साथ उसकी दो छोटी बहनें, आंटी, अंकलजी सब हमारा बड़े मन से सत्कार करते। उसके घर का सौहार्दपूर्ण वातावरण बहुत आकर्षित करता था, मुझे अपने घर की याद दिलाता था। भाई बहनों की नोक-झोंक, माँ की ममता, मयंक का अपनापन मुझे बहुत लुभावने लगते थे। ये वो समय था जब मोबाइल फ़ोन जैसी चीज़ के बारे में किसी ने सपने में नहीं सोचा था। 

दुर्गा पूजा का समय था, लेकिन कॉलेज में छुट्टियाँ न होने के कारण घर नहीं जा पाई थी। उदासी से उबरने के लिए अष्टमी वाले दिन कुछ देर के लिए मैं मयंक के घर चली गई। आंटी ने कहा, “बहुत अच्छे समय पर आई हो मिहिका, कचौड़ियाँ बनाई हैं, खाकर जाना।” मुझे बरबस माँ की याद आ गई।

“मेरे कमरे में बैठते हैं, टीवी पर मैच चल रहा है, देख लेंगे,” मयंक ने कहा। कमरे में चारों तरफ़ किताबें और कपड़े बिखरे हुए थे एक कोने में पुरानी सी ड्रेसिंग टेबल रखी थी।

“कितना फैलाकर रखा है कमरा तुमने मयंक, मेरा बस चले तो सब व्यवस्थित कर दूँ और ये ड्रेसिंग टेबल तो पक्का बदल दूँ,” मैंने हँसकर कहा था। मयंक ने एक पल के लिए मुझे मुस्कुराकर देखा। उसकी दृष्टि में जाने क्या था कि मेरी नज़रें स्वतः ही झुक गईं। हमारे बीच जो कुछ भी था अनकहा और अनसुलझा ही रह गया, महज़ दोस्ती ही थी या उसमें आकर्षण या प्यार का पुट भी था, पता नहीं . . . कुछ चीज़ें अनछुई ही मनभावन लगती हैं, हमारा रिश्ता भी कुछ ऐसा ही था। 

मेरे जीवन की किताब में देहरादून नाम का अध्याय समाप्त हो चला था। ख़ूबसूरत यादों को अपने मन के संदूक में क़रीने से सहेजकर, ज़िन्दगी की जंग जीतने की तैयारी के साथ, मैं घर लौट आई थी। नई नौकरी में अभी ठीक से रम भी नहीं पाई थी कि घर में मेरी विदाई की तैयारियाँ ज़ोर पकड़ने लगी थी। 

शादी के बाद घर और नौकरी के बीच सामंजस्य बिठाते हुए, नई नई भूमिकाओं में स्वयं को ढालने के प्रयास में, जीवन के ज्वार भाटों को सहते हुए, समय की लहरों के संग-संग बहती रही। आज जब यादों का पिटारा खोला तो बड़े जतन से सँभालकर रखी गई यादों को जस का तस पाया। 

मयंक के रूप में मेरा खोया हुआ दोस्त क्या मिला, मानो मेरा बचपन ही लौट आया था। हम फ़ोन पर अक़्सर बातें कर लिया करते थे, अपने काम, घर परिवार, सहकर्मियों की ढेर सारी बातें। मयंक ने विवाह नहीं किया था। मेरे कारण पूछने पर मस्ती भरे अंदाज़ में बोला, “मेरा कमरा तो तुम्हेंं ही व्यवस्थित करना था ना, मैं तो तुम्हारा इंतज़ार करता रहा।” 

“अब तो गुलाब का फूल लेकर घुटनों पर बैठकर भी प्रोपोज़ करोगे, तो भी कोई मतलब नहीं है,” मेरी इस बात पर हम देर तक ख़ूब हँसते रहे। हमारी खरे सोने जैसी निःस्वार्थ और पावन दोस्ती पर परिपक्वता की अनोखी चमक थी। 

एक दिन मयंक ने कहा, “मेरे कमरे का ड्रेसिंग टेबल टूट रहा है, नया ले रहा हूँ, नया आते ही तुम्हेंं विडिओ कॉल करूँगा।” 

“ओह! तो वो पुराना ड्रेसिंग टेबल अब तक चल रहा है!” मैंने मज़ाक बनाया। 

एक दिन शाम को मयंक ने विडिओ कॉल में नया ड्रेसिंग टेबल दिखाया और ड्रेसिंग टेबल के पास ही बैठकर मुझसे बात करने लगा। दो मिनट बाद ही अचानक मैंने शीशे में एक अस्पष्ट सी छाया देखी, आसमानी से कपड़ों में कोई लड़की जैसे अपने लम्बे बाल सँवार रही हो, चेहरा ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने चौंक कर मयंक से पूछा, “कौन है ये?” 

“कौन? किसकी बात कर रही हो?” मयंक के इतना कहते ही मैं बहुत घबरा गई और अब वो छाया भी नदारद थी। मयंक को बताया तो वो बोला, “मेरे घर में तो इस समय मेरे और माँ के अलावा कोई नहीं है। माँ तो अपने कमरे में बैठी है और मुझे तो कोई नज़र नहीं आया, तुम्हें कोई भ्रम तो नहीं हुआ?” 

उस रात मुझे नींद नहीं आई, मैंने क्या देख लिया था, सोचती रही। पाँच दिन बाद मैंने ही मयंक को विडिओ कॉल किया, मेरा खोजी स्वभाव सच्चाई जानना चाहता था। उस दिन की तरह मयंक फिर से ड्रेसिंग टेबल के पास ही बैठकर बतियाने लगा। आज भी लगभग दो मिनट बाद मुझे ठीक वैसी ही एक अस्पष्ट सी आकृति नज़र आई। आकृति के लुप्त होने से पहले ही मैंने बिना डरे बहुत ध्यान से उसका चेहरा देखा। विस्मय की पराकाष्ठा में मैंने देखा कि वो चेहरा सत्ताइस साल पुराना मेरा ही चेहरा था। आसमानी सूट और लम्बे बालों में वो नवयुवती मेरा ही पुराना रूप था।

“क्या हुआ? क्या सोच रही हो? खोई खोई सी क्यों हो? आज भी कुछ असामान्य सा नज़र आया क्या?” 

मयंक की आवाज़ सुनकर जल्दी से ख़ुद को समेटकर कहा, “अरे नहीं, ख़ूबसूरत है तुम्हारा ड्रेसिंग टेबल।” 

नहीं बता पाई उसे कि मेरे अवचेतन में दबी ढँकी कल्पनाएँ ही छाया रूप लेकर मुझे छल रही हैं। कैसे बताती उसे कि उस घर से और मयंक से मेरे अंतर्मन का लगाव ही मुखर होकर मुझे भ्रमित कर रहा है? नहीं बोल पाई कि वो तो जटिल हृदय का स्वयं का बनाया हुआ मायाजाल था, वो तो मिही . . . मिहिका ही थी। 

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