तुम्हारा एहसान

01-03-2019

तुम्हारा एहसान

राहुलदेव गौतम

मुझे पता था!
तुम भी वही करोगे,
जो सदियों पहले,
तुम्हारे पूर्वजों ने किया था!
तुमने ही तो खींचा था मुझे,
एक रेखा की तरह,
और तुमने ही मिटा दिया था मुझे!

मैं बिखरा हुआ काँच था!
तुमने ही तो जोड़ा था मुझे,
और तुमने ही तोड़ दिया था मुझे!

मैं पत्थर था,
तुम्हारी आने-जाने वाली राहों का,
तुमने ही तो तराशा था मुझे,
और तुमने ही दूर फेंक दिया था मुझे!

मैं जीवन का मात्र शेष था,
तुमने ही तो बचाया था मुझे,
अपनी बेवजह हँसी के लिए!
और तुमने ही लुटा दिया था मुझे!

मैं सोच का एक टुकड़ा था!
तुम्हारे हिस्से में आया था,
तुमने ही तो सोचा था मुझे,
और तुमने ही टुकड़े में बाँट दिया था मुझे!

मैं ठहराव था!
तुम्हारे थकते क़दमों का,
तुमने ही तो रोका था मुझे,
और तुमने ही गुम छोड़ दिया था मुझे!

मैं तलाश थी!
तुम्हारी बेपरवाह धड़कनों की,
तुमने ही तो पाया था मुझे,
और तुमने ही खो दिया था मुझे!

मैं कुछ था!
तुम्हारे जीवन के कुछ क्षण में,
तुमने ही तो कुछ कहा था मुझे,
और तुमने ही कुछ बनाकर छोड़ दिया था मुझे!

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
नज़्म
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में