कुछ ख़त उसके
राहुलदेव गौतमसागर की लहरों सी
तुम्हें!
मैंने,
अपनी आँखों में सिमटते देखा है . . .!
मैं धीरे-धीरे तुम्हें भूल रहा हूँ
फिर क्यों ढूँढ़ रहा हूँ अपने आप को,
तुम्हारी रूहानियत ख़्लायातों में!
मैं तुम्हारा गुनाहगार था? या
तुम्हारा मुकम्मल सच,
तुम्हारे आख़िरी ख़त में
जसे तुम लिख कर हमेशा के लिए चले गए
“तुम, मेरे ख़ुशियों की वजह हो,
और इस ख़ुशी के बदले,
तुम्हें, कुछ भी ना दे पाने का ग़म
मुझे पल-पल मार रहा है,
इसलिए मैं अंतिम बार मर रही हूँ, देव!”
मुझको यह टीस, यह कसक
ताउम्र मेरी गरदन की बोझ बनकर रह गयी!!
तुम्हारे जाने के बाद . . .
मुझे लगता है कि
मैं किस उम्मीद में हूँ?
तुम्हें अभी तक ढूँढ़ रहा हूँ
अपने भीड़ भरे जज़्बातों में!
यह किसकी तलाश है?
या फिर मैं ही,
अपने आप को
ढूँढ़ रहा हूँ!!!
एक हक़ीक़त यह भी थी
तुम्हें ठीक से,
दुनिया के सामने
स्वीकार भी नहीं कर पाया था कि, तुम!
ख़्वाब हो गये!!
ख़ैर, कई उम्र से अब,
जी रहा हूँ अपने
इन शब्दों के सहारे!
ना जाने क्यों ज़िन्दा हो तुम,
मुझमें!
जबकि हर रोज़ मैं मर रहा हूँ . . .
तुम्हारेे ख़ालीपन में!!!
हाँ! यह मैं मानता हूँ कि,
मैं तुम्हारे दर्द को
कम तो नहीं कर पाया
लेकिन तुम्हारे हर तकलीफ़ों को
महसूस किया है . . .!
काश कभी तुम!
मेरे जगह होते तो,
तुम्हें!
एक सच और मालूम होता
कि कितनी हसरतों का क़त्ल करके,
पाया था तुम्हें . . .!
एक छोटा सा
मदारी मेरा मन!
तुम!
इसकी एक ठहराव थी . . .!
दुनिया की भीड़ भरी
कोलाहल में,
अभी भी सुनाई देती है
तुम्हारी आख़िरी साँस!
कभी सोचा था तुमने
तुम्हारे जाने के बाद
इस क़द्र तन्हा हो जाऊँगा मैं!
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